उसके हाथ नहीं होता। स्त्रियों की सदा से स्वाभाविक प्रवृत्ति ऐसी होती है कि वे समाज में अपनी और अपने कुटुम्ब की प्रतिष्ठा बढ़वाने का बर्ताव सदा रखती हैं; इस बात के कारण पुरुष स्त्रियों को दोषी भी ठहराते हैं और उनके चरित्र में निर्बलता, अस्थिरता, बाल्यावस्था आदि दोष आरोपित करते हैं; किन्तु यह कहना अनुचित और अन्याय से भरा है। समाज की व्यवस्था ने सम्पन्न-अवस्था वाली स्त्रियों के जीवन को त्यागमय बना डाला है। सामाजिक दबाव के कारण स्त्रियाँ अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को निरन्तर दबाव में रखती हैं; और इस प्रकार का निस्स्वार्थ जीवन बिताने के के बदले में समाज से उन्हें मिलता क्या है, केवल अच्छा नाम या सूखी प्रतिष्ठा!! फिर उसकी इज्ज़त-आबरू उसके पति की इज्ज़त-आबरू के साथ जुड़ी होती है, बल्कि दोनों एक रूप ही होते हैं। किन्तु पति जब लोकमत का अनादर करने के लिए तैयार होता है, तब उस बिचारी की जन्मभर की कमाई हुई इज्ज़त-आबरू का भी अन्त आजाता है—इतना परिश्रम करके सम्पादन की हुई और आत्मबलि देकर रक्षित रक्खी हुई कीर्त्ति किसी ऐसे कारण से जिसे वह समझ भी नहीं सकती, यदि वह उस से छिन जाय और इसके लिए वह मन में संकुचित हो, दुखी हो, तो आश्चर्य्य की बात ही कौन सी है? अपने विषय में लोगों का अच्छा ख़याल बनवाने के लिए वह अपना सर्वस्व अर्पण कर डालती है;