के साथ बालू मिला कर तेल निकालने के समान है। जैसे अपनी पुरानी-धुरानी चीजों के अतिशय प्यारी होने पर भी बिना उनमें आग लगाये प्लेग से छुटकारा नहीं होता, वैसे ही अपनी निरर्थक रीति-रिवाजों और व्यवहारों को एक दम बिना छोड़े-बिना सर्वाङ्गपरिवर्तन किये हिन्दू-समाज
का निस्तार नहीं हो सकता। उस परिवर्त्तन में विशेष करके स्त्रियों के जिन अधिकारों की अमर्यादा की गई है-उनका चारु रूप से परिवर्तन करना होगा। इसे छोड़ कर कोई रस्ता है ही नहीं। इसमें जितना विलम्ब किया जायगा, समाज के उन्नत होने में भी उतना ही विलम्ब होगा।
आज समझदार मनुष्य की आँखों से स्त्रियों का महत्त्व छिपा नहीं है। यूरोप के भीषण संग्राम में अबलाओं का कार्य देखने योग्य है। पुलिस, डाक, तार, रेल, कारखाने, दूकान, कार्यालय आदि सब कहीं स्त्रियों की महिमा प्रत्यक्ष दीख रही है। सामाजिक या राजनैतिक किसी बात में भी स्त्रियों को पीछे छोड़े अब काम चल ही नहीं सकता। अब हमें इस समय के लिए उपयोगी और आवश्यक नवीन शास्त्र बनाने होंगे। शङ्कर और कपिल के सिद्धान्तों को पढ़ने की जगह मिल और स्पेन्सर को पढ़ना होगा। बद्रीनारायण और जगन्नाथ की यात्रा की जगह न्यूयार्क और लण्डन को पवित्र तीर्थ मान कर यात्रा करनी होगी। प्राचीन शास्त्रों का उपयोग प्राचीन इतिहासों से बढ़ कर नहीं