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पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/२९८

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मनुष्य-जाति पर जब तक क़ानून का बन्ध नहीं होता, तब तक वह अनियन्त्रित स्वाधीनता भोगने की इच्छा रखता है। आगे बढ़ने वाले मनुष्यों को जब अपने कर्त्तव्य का ज्ञान होता है, और ज्ञान की क़ीमत उनकी समझ में आती है, तभी वे अपनी नियामक सत्ता पर नियमों का अङ्कुश रहना आवश्यक समझते है; किन्तु इसका परिणाम यह नहीं होता कि स्वतन्त्रता से उनका प्रेम कम हो जाय। लोग कभी इस बात को स्वीकार नहीं करते कि दूसरे की इच्छा ही अपना क़ायदा, या दूसरे की इच्छा ही कर्त्तव्य और विवेक की प्रतिनिधि है। अर्थात् समाज के नियामक तत्त्व कर्त्तव्य और विवेक को किसी ख़ास व्यक्ति की इच्छा पर लोग छोड़ना पसन्द नहीं करते; किन्तु इस के विरुद्ध जो व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के पक्षपाती होते हैं, वे इस विचार पर ज़ियादा जोर डाले रहते हैं कि, अपनी इच्छा के अनुसार बरतने की स्वाधीनता होनी चाहिए—उन्हीं की विचारशक्ति और विवेक बुद्धि सबसे अधिक शिक्षित होती है तथा सामाजिक कर्त्तव्य की ओर उनका सुकाव सब से अधिक होता है। उनका विचार इस प्रकार का होता है कि, प्रत्येक मनुष्य की स्वाधीनता पर यदि किसी प्रकार का अङ्कुश आवश्यक हो तो वह इतना ही होना चाहिए कि, अपने कर्त्तव्य के सम्बन्ध में व्यक्ति की जो समझ हो तथा अपने लिए उसे जो क़ायदे और सामाजिक बन्धन योग्य जान पड़ें—उन्हें वह दूसरों के लिए लागू न करे। इसके

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