अलावा और किसी प्रकार की रुकावट उसकी स्वाधीनता में न होनी चाहिए।
२०—जिसकी यह समझने की इच्छा हो कि मानवी सुख के लिए व्यक्ति-स्वातन्त्र्य की कितनी अधिक आवश्यकता है, उसे सोचना चाहिए कि वह खुद अपनी स्वाधीनता को कितनी क़ीमती समझता है। एक मनुष्य एक विषय में जब खुद अपने लिए विचार करता है तब जिस लक्ष्य पर पहुँचता है, वही मनुष्य उसी विषय में जब दूसरे के लिए विचार करता है तब न्यारे लक्ष्य पर पहुँचता है; और प्रस्तुत विषय के विचार में तो लोगों में इतना अन्तर होता है कि शायद ही और किसी विषय में होता हो। जब किसी दूसरे व्यक्ति की ऐसी शिकायतें सामने आती हैं, कि 'मुझे मेरी इच्छा के अनुसार बरतने की स्वाधीनता नहीं,' या 'काम-काज की व्यवस्था में जितना मेरा अधिकार होना चाहिए था उतना नहीं है', तब उस से ऐसे सवाल करने लगता है कि, 'तो इससे तुझे क्या दुःख है? इस से तेरा प्रत्यक्ष नुक़सान क्या होता है? और तेरे काम में इससे अव्यवस्था हो क्या होती है?' इन प्रश्नों का उत्तर यदि शिकायत करने वाले की तरफ़ से उसका समाधान करने योग्य नहीं होता तो वह उसकी शिकायत पर ज़रा भी ध्यान नहीं देता, बल्कि विशेषता में उस पर सम्मति देता है कि, 'इसकी शिकायत व्यर्थ और कपोलकल्पित है, इसका झगड़ने का स्वभाव ही है; इसके साथ चाहे जितना