पर जब हम विचार करते हैं तब हमें वही मंसा होता है कि, मानवी जीवन की अनिवार्य अपूर्णता के कारण उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों से भिड़ जाने में यह जिन-जिन बातों पर लक्ष्य रखता है उन में यह एक अत्यन्त महत्व का विषय है कि, प्रकृति अपनी ओर से मनुष्य-प्राणी पर जो-जो सङ्कट डालती है, तथा उसके मार्ग में जो-जो विघ्न खड़े करती है––उसमें किसी को अपने दुराग्रह और मत्सर के वश होकर उन सङ्कटों और प्रतिबन्धों की संख्या में और अधिक विशेषता न करनी चाहिए। क्योंकि जिस बात से डर कर वे प्रतिबन्ध डालते हैं वह व्यर्थ और कुछ नहीं के बराबर होता है। जिन बूरे परिणामों के उत्पन्न होने से के डरते हैं वे कभी उत्पन्न होते ही नहीं, बल्कि इससे उलटे जो दुष्ट परिणाम उनकी कल्पना में घूमा करते हैं, उनसे खराब कुछ और ही परिणाम निकल पड़ते हैं। अपने कार्य या बर्ताव के बुरे फल तो भोगने ही चाहिए, इसमें कोई हानि भी नहीं। मनुष्य की व्यावहारिक स्वाधीनता को दाब देने से व्यक्तिमुख का सोता सूख जाता है। जीवन जिन-जिन कारणों से सुखी हो सकता है उनमें शारीरिक आवश्यकताओं के बाद व्यक्तिसुख का ही नाम से सकता है; किन्तु व्यक्तिस्वाधीनता को नष्ट कर देने से व्यक्तिसुख की कल्पना ही नहीं होती।
समाप्त।