पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/४१

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है,-जिस तत्त्व के आधार पर संसार के प्रचलित व्यवहारों की रचना की जाती है, जिस तत्त्व के सिद्धान्तों में घिर कर मनुष्य छोटे से बड़ा होता है, उस तत्त्व पर यदि बुद्धिवाद का पहला ही हमला हो, और बुद्धिवाद के तीखे प्रभाव से यदि वे अपने तत्त्व की रक्षा न भी कर सकें-फिर भी वे केवल इतने ही कारण से अपना मत कभी नहीं बदलेंगे-वर्तमान मनुष्य-समाज की दृष्टि से यह अशक्य है। कारण यह है कि अभी तक मनुष्यों को अपनी बुद्धि पर विश्वास नहीं है-लोग अभी तक अपनी शक्ति को साधक-बाधक प्रमाणों के तोलने योग्य नहीं समझते-अपनी बुद्धि को वे परिपक्व नहीं मानते। इस दशा पर पहुँचने के लिए अब तक जितना बुद्धि का विकाश हुआ है, इससे कहीं अधिक विकाश की आवश्यकता है। मेरे इस कहने का मतलब यह नहीं है कि बुद्धिवाद या तर्कशास्त्र पर लोगों का विश्वास कम है; बल्कि रूढ़ि या प्रवृत्ति पर जितना विश्वास होना चाहिए उससे कहीं अधिक है-इस स्थान पर समानता नहीं है, यही मेरा मतलब है। अठारहवीं शताब्दी के लोग जिस विचारशक्ति या सामञ्जस्य तत्त्व को जो सम्मान देते थे, उन्नीसवीं शताब्दी के लोग असामञ्जस्य या मनोवृत्ति को वह सम्मान देते हैं, यह एक अचम्भे में डाल देने वाली प्रतिक्रिया है। बुद्धि को उसके योग्य स्थान से पदभ्रष्ट करके हमने उसका स्थान नैसर्गिक प्रवृत्ति को दिया है, और अपने