जो रूढ़ि पसन्द की गई होगी, या उससे शुभ फल होने का विश्वास करके जो रूदि प्रचलित की गई होगी,-उसके विषय में ऊपर वाला अनुमान वास्तव में ठीक उतरेगा। सब से आदि में जिस समय यह रूढ़ि चली कि स्त्रियाँ पुरुषों की आधीनता में रहें, उस समय सामाजिक व्यवहार चलाने के भिन्न-भिन्न
मार्गों की भली भाँति परीक्षा करके यदि यह मार्ग निश्चित किया गया होता-अर्थात् अनेक मार्गों में से सब का अनुभव प्राप्त करने के बाद यह निश्चित सिद्धान्त बन गया होता कि स्त्रियों की पराधीनता वाला मार्ग ही सबसे अधिक अच्छा है-यानी कुछ समय तक पुरुषों को बिल्कुल स्त्रियों के आधीन करके परीक्षा करली होती,-तथा कुछ समय तक स्त्री-पुरुष के अधिकार सर्वथा समान रख कर पजोखा होता-और इस ही प्रकार कल्पनाके द्वारा जो जो नियम समाज चलाने के सूझ सकते हैं उन सब की परीक्षा भली भाँति की गई होती,-और उस परीक्षा के बाद उसके परिणाम-स्वरूप सामाजिक स्थिति सुधारने वाला कोई नियम सब से अच्छा पाया गया होता,-यदि परीक्षा के बाद यह निश्चय होता कि,-"स्त्रियों को सर्वथा पुरुषों के आधीन रखना चाहिए, उन्हें सार्वजनिक कामों में बिल्कुल हाथ न डालने देना चाहिए, वे स्वाधीनता के सर्वथा अयोग्य हैं, एक-एक स्त्री का भाग्य एक-एक पुरुष के पैर में ही बँधना चाहिए, न्याय के अनुसार
उनका कर्त्तव्य यही बनाना चाहिए कि स्त्रियाँ पुरुषों की
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