पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/५३

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शब्दों से हम संकोच करते हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि उस समय के लोगों में यह कल्पना भी कहाँ से हो सकती थी कि जो कुछ हम कर रहे हैं उस में कुछ बुराई का भी अंश है। किसी भूले-भटके तत्त्वज्ञानी या साधु पुरुष के हृदय में यह कल्पना कभी उठी होगी तो उठी होगी; बाक़ी लोगों को तो इसका ख़याल भी नहीं हो सकता था। इतिहास हमें मनुष्य-स्वभाव का बड़ा ही भद्दा अनुभव देता है। इतिहास देखने से मालूम होता है कि संसार की प्रत्येक जाति और क़ौम यह सिद्धान्त दृढ़ता के साथ मानती थी कि सम्पत्ति और सम्पूर्ण ऐहिक सुख केवल शारीरिक पराक्रम पर ही अवलम्बित है, शस्त्रधारी अथवा शारीरिक बल-सम्पन्न राजा या अधिकारी मनमाना ज़ुल्म करने पर भी जो उनका विरोध करता था उसकी वे पूरी दुर्दशा करते थे और मनुष्य की कल्पना के द्वारा जो कड़ी से कड़ी सज़ा सूझ सकती है वह उसे देते थे। अपने से कम सामर्थ्य वाले निम्न श्रेणी के मनुष्यों का भी कुछ हक़ है और उनके प्रति हमारा अमुक प्रकार का कर्त्तव्य है, उच्च श्रेणी वाले सबल मनुष्यों के हृदयों में यह कल्पना यदि कभी कुछ स्थान पाती थी तो उस ही समय कि जब उन्हें अपनी किसी अनुकूलता के लिए निर्बल मनुष्यों को कोई वचन देना पड़ता था। ऐसे वचन सौगन्द खाकर या विधि-पूर्वक प्रतिज्ञा करके करने पर भी अत्यन्त क्षुद्र कारण से या किसी छोटे-मोटे लालच के वश