पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/७

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लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि वे योग्य व्यक्तियो के हाथ के खिलौने होते है। और इस अयोग्यता की सबसे पहली पहचान यही है कि, जो अपनी उत्पत्ति ख़ास नारायण की नाभि से सिद्ध करने में तो ज़मीन आसमान के कुलावे मिलादें, किन्तु व्यावहारिक जीवन में अणुमात्र सुविधा न होते हुए भी इस ओर से निपट निरंजन बने रहें। यद्यपि अपनी प्राचीनता का गर्व बुरा नहीं है, फिर भी 'अति सर्वत्र वर्जयेत्'। हमारे हिन्दू समाज में प्राचीनता का रोग बड़ा ही बुरा पैठा है। हमारी यह मामूली आदत है कि हम जो कुछ देखते हैं, जो कुछ सुनते हैं, जो कुछ विचारते है---उस सब में अपनी आँखों पर प्राचीनता का चश्मा चढ़ाये रहते हैं। हम किसी बात को देखने, सुनने और जानने से पहले ही अपनी प्राचीनता को आगे रक्खे रहते हैं: यदि उसके किसी अंश से हमारी प्राचीनता का कोई भाग सिद्ध होता है तब तो हमारे आनन्द की सीमा नहीं रहती और यदि उसका मत विपक्ष में हुआ तो एकादशी करते हुए भी कोसना तो हमारे ही हिस्से में है। हम अपनी बड़ी रूढ़ियों को तो क्या छोटी-मोटी को भी लाभ ही की दृष्टि से देखते हैं; उसका त्याग करना हमारे लिए हिमालय लांघना है। "यद्यपि शुद्ध लोकविरुद्ध नाचरणीयं नाकरणीयम्” यही तो हिन्दू समाज की पुरानी और परम प्यारी चीज़ है। किन्तु इस जीते-जागते संसार में हमारी इस गलग्रह वाली नीति