का कौनसा स्थान हो सकता है? हम ऐसे लकीर के फ़कीर बन कर संसार में कितने दिन सिसकते रहेंगे? "स्वधर्मे निधनं श्रेयः पर धर्मो भयावहः" हमारा यह बड़ा भारी डर हमारे हृदय का पिंड किस दिन छोड़ेगा? रूढ़ियों से जकड़े हुए मनुष्य दोही प्रकार से जीते रह सकते हैं, या तो वे इतने सशक्त हों कि जिससे दूसरों को अपने हाथ का खिलौना बना सकें और या मोल लिये हुए गुलामों की तरह सशक्त व्यक्ति की चरण-सेवा भक्तिपुरस्सर किया करें। इन दो प्रकार की जीवनियों के अलावा रूढ़ियों से जकड़े हुए व्यक्तियों की और कोई जीवनी नहीं हो सकती। किन्तु ये दोनों दशाएँ 'उन्नति' शब्द का अपवाद है। इस नियम में हृदय और मस्तिष्क की शक्तियों में बड़ा भारी अन्तर है, अर्थात् इस नियम में मस्तिष्क की शक्ति हृदय की शक्ति के क़ाबू में है-किन्तु वास्तविक स्थिति होनी वह चाहिए जिस में दोनों समान हों। न कोई किसी का मालिक बने और न किसी को गुलाम बनना चाहिए "A man of virtuous soul commands not, nor obeys." यही स्थिति उन्नति का पहला सोपान है। किन्तु रूढ़ि का राज्य तो इससे बहुत दूर है। जिस समाज का ध्येय यह न हो कि, 'हम सदैव असत्मार्ग का त्याग करते रहेंगे और उपकारी नियमों को पालन करना सीखेंगे,' वहाँ सर्वोच्च "समानता" वाली स्थिति का आना ही असम्भव है। दुर्भाग्य से हमारे समाज का हृदय, मन और आत्मा तक
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