के लिये उन्होंने शिक्षा के साधनों का स्वाधीनता-पूर्वक ख़ूब ही उपयोग किया। प्रत्येक स्त्री के दिमाग़ में छुटपन से ही यह बात ठूँस-ठूँस कर भर दी जाती है कि उसकी रहन-सहन उसका चाल-चलन और व्यवहार बिल्कुल भिन्न प्रकार का होना चाहिए। उन्हें छुटपन से सिखाया जाता है कि अपनी इच्छा के अनुसार रहना, और केवल अपने अन्तःकरण की ही आधीनता मान कर चलना स्त्री-जाति को शोभा नहीं देता। बल्कि स्त्रियों के लिए यह बात सब से अच्छी है कि वे दूसरों की इच्छा के आधीन होकर चलें। नीतिशास्त्र उन्हें उपदेश देता है कि स्त्रियों का जीवन तो दूसरों के लिए ही है; प्रत्येक व्यवहार में स्त्रियों को समझ लेना चाहिए कि हम कोई चीज ही नहीं है; और उन्हें समझ लेना चाहिए कि हमारा कर्त्तव्य तो केवल दूसरों के प्रेम की पात्री बन जाना मात्र है*[१]। व्यवहार-शास्त्र भी स्त्रियों को यही उपदेश देता है कि पुरुषों की इच्छा के अनुसार बर्ताव करना ही स्त्रियों के लिये कुदरती बात है। स्त्रियों को जो दूसरों से प्रेम करने
- ↑ * हमारे शास्त्रों में "न स्त्रीस्वातन्त्र्यमर्हति" (मनु अ॰ ५, श्लो॰ ३) "न मजेत स्त्रीस्वातन्त्र्य" (मनु॰ अ॰ ५, १४८) "स्वातन्त्र्य न क्वचित् स्त्रिय" (याज्ञवल्क्य॰ १ श्लोक ८५) आदि तो हैं ही, किन्तु स्त्री बाल्यावस्था में माता-पिता की आधीनता में रहे, विवाह के अनन्तर पति की पराधीनता में रहे और वृद्धावस्या में जवान पुत्र की आधीनता में रहे। यदि विधवा हो जाय और कोई निकट-सम्बन्धी न हो तो "तेषामभावे ज्ञातय" (याज्ञवल्क्य) जाति की आधीनता में रहे-किन्तु किसी समय भी स्त्री स्वाधीन न हो।