को शिक्षा दी जाती है, वह भी बहुतों से प्रेम करने की नहीं होती। बल्कि एक तो वह उस मनुष्य के साथ प्रेम करने योग्य समझी जाती है जिसके पैर में उसकी तक़दीर की रस्सी बाँधी जाती है और दूसरे अपने बालबच्चों से प्रेम करना उस का कर्त्तव्य समझा जाता है। क्योंकि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का सम्बन्ध बच्चों से अधिक होता है। अब इस विषय में तीन बातें विचार करने योग्य हैं। प्रथम तो स्त्री-पुरुषों
में एक दूसरे का स्वाभाविक आकर्षण, दूसरे स्त्रियों को प्रत्येक विषय में अपने स्वामियों पर ही आधार रखना पड़ता है,-क्योंकि स्त्रियाँ जो कुछ सुख और जो कुछ स्वाधीनता भोग सकती हैं वह केवल अपने स्वामियों की प्रसन्नता ही पर पा सकती हैं-और जब तक वह अपने स्वामी की इच्छा के अनुसार चलती हैं तभी तक उन्हें कुछ आजादी मिलती है; तीसरे स्त्रियों का जन्म सार्थक होना, उनको सम्मान मिलना,
उनके सामाजिक रुतबे में कुछ बढ़ाना-आदि बातें स्थूल रूप से स्त्रियों को केवल अपने स्वामियों से ही मिलती है। जब हम इन तीनों बातों पर विचार करते हैं, तब स्त्रियों को पुरुषों की प्रेमपात्री बनना ही चाहिए, उनकी प्रसन्नता प्राप्त करनी ही चाहिए, पति के मन-चाहे ढँग से रहना ही चाहिए,-इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। स्त्रियों के मन पर अधिकार करने का जब यह पूरा ढँग (शिक्षा) पुरुषों के हाथ
लग गया तब उन्होंने अपने स्वार्थ-साधन के लिए ऐसे तरीक़े
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