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पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/९५

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है कि जो भेद किसी प्रकार बनावटी न साबित हो वह स्वाभाविक है। शिक्षा और बाह्य संयोग से प्रत्येक में जो जो बातें फिर आ मिली हों, उन्हें छोड़ देना चाहिए, और उनके छोड़ देने पर बाकी जो गुण बचें वे स्वभावसिद्ध या प्रकृतिदत्त है। इस विषय का सम्पूर्ण और यथार्थ ज्ञान प्राप्त किये बिना कि मनुष्य-चरित्र किन-किन नियमों के व्यापार का परिणामरूप है, स्त्री और पुरुष के बीच में प्रकृतिसिद्ध भेद वास्तव में कोई है या नहीं, यही जानने का अधिकार किसी को नहीं है, तब यह प्रतिपादन करने की बात तो दूर है कि प्रकृतिसिद्ध भेद फलाने-फलाने है। इस विषय के अत्यन्त महत्त्व का होने पर भी किसी ने इसके अभ्यास की ओर ध्यान नहीं दिया इसीलिए इस विषय का यथार्थ ज्ञान भी किसी को नहीं है; इसलिए इस विषय पर निर्णय को राय देने का हक़ भी किसी को नहीं है। इस समय तो केवल कल्पना या अनुमान बाँधा जा सकता है; और चरित्र-संगठन के विषय में मानसशास्त्र का जितना कम या ज़ियादा ज्ञान है उतने दो प्रमाण में यह तर्क खोटा या खरा होगा।

२१-स्त्री और पुरुष का भेद किन-किन कारणों से उत्पन्न हो सका है, इस विषय का यथार्थ ज्ञान तो एक ओर रहा, किन्तु वास्तव में ये भेद है कौन-कौन से, इस सम्बन्ध में हमारा जो ज्ञान है वह भी बहुत ही कम और कच्चा है। इस विषय का निर्णय करते समय मानसशास्त्र-वेत्ता को इस बात