ऐसे देखने में आते हैं जो सांसारिक व्यवहार में एक मन से और परस्पर एक दूसरे का लाभ सोचते हुए अपना संसार चलाते हैं; किन्तु इनमें परस्पर एक दूसरे के हृदय को परखने का गुण एक साधारण दृष्टि से देखने वाले मनुष्य की अपेक्षा विशेष नहीं होता। जिन स्त्री-पुरुषों में परस्पर सच्चा प्रेम भी होता है, उस सम्बन्ध में भी पुरुष के मन में अधिकार भोगने का लोभ, और स्त्री के मन में अपनी पराधीनता का ख़याल, इन दोनों विरोधी बातों के कारण परस्पर पूरा विश्वास नहीं होता, और इसलिए स्त्री अपने हृदय की गहरी से गहरी बात कभी प्रकट नहीं कर सकती। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि स्त्री अपने हृदय के जिन विचारों को पति से छिपा रखती है उन्हें वह जान-पूछ कर ही छिपाती है, किन्तु जिन विचारों को वह अपने सर्वथा हित चाहने वाले सुहृद से कह सकती है, उन्हें नहीं कहती। स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध से मिलता-जुलता पिता-पुत्र का सम्बन्ध है, उस सम्बन्ध में यही प्रकार दीखता है। पिता-पुत्र का
एक दूसरे पर अपार प्रेम होता है, पर प्रेम होने पर भी बहुत बार यह देखा जाता है कि पुत्रके विषय में पिता को जितनी जानकारी होती है, उससे कहीं ज़ियादा हाल उसके मित्रों को मालूम होता है। ऐसा होने का कारण यह है कि जिन दो मनुष्यों में स्वामी-सेवक या ज्येष्ठ-कनिष्ट का सम्बन्ध होता है उनमें हृदय खोल कर बोलने-चालने का कभी अवसर ही
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