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समाज-भेद।


हो रहे थे कि जिसमें हमारे नये शिक्षक (यूरोप) में और हममें जो भेद है वह मिट जाय। इसी समय मास्टर साहब ने अपना धर्मशास्त्र बंद करके कहा––पूर्व और पश्चिम में इतना अन्तर है कि वह किसी तरह मिटनेवाला नहीं।

बहुत अच्छा, अन्तर है तो बना रहे। विचित्रता ही संसार के स्वास्थ्य की रक्षा करनेवाली है। पृथ्वीपर जाड़ा-गर्मी सर्वत्र समान नहीं है, इसी से वायु चलती है। सभ्यता के भिन्न भिन्न आदर्श भिन्न भिन्न रूपों में सार्थक होकर अपनी स्वतन्त्रता बनाये रक्खें। ऐसा होने से, उस स्वतन्त्रता से परस्पर, एक दूसरे के निकट, शिक्षा का लेन-देन हो सकता है।

किन्तु, अब तो देखते हैं कि गालीगलौज और गोले-गोलियों का लेन देन होने लगा है। नई ईसवी-सदी का यों आरंभ हुआ है।

भेद है, यह स्वीकार करके बुद्धि, प्रीति, सहृदयता और विनय के साथ उसके भीतर प्रवेश करने की योग्यता या क्षमता यदि नहीं है तो ईसा की शिक्षा पाकर १९०० वर्षतक तुमने क्या किया? तुम तोप के गोले से पूर्वी दुर्ग की दीवार तोड़कर सब एकाकार कर दोगे, या कुंजी से उसका काटक खोलकर भीतर घुसोगे?

चीना लोगों ने पादरियों पर आक्रमण किया, इसीसे चीन में वर्तमान विद्रोह का सूत्रपात हुआ है। यूरोप के जी में सहज ही यह बात आ सकती है कि धर्म के प्रचार या शिक्षा के विस्तार पर चीन का यों जोशमें आ जाना या उदारता न दिखाना उसके जंगलीपन या असभ्यता को प्रमाणित करता है। पादरी लोग चीन का राज्य जीतने तो गये ही न थे।

यहीं पर पूर्व और पश्चिम में भेद है और उस भेद को यूरोप श्रद्धा और सहिष्णुता के साथ समझने की चेष्टा नहीं करता। इसका कारण यही है कि उसके शरीर में बल है।