पृष्ठ:स्वदेश.pdf/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१०१
समाज-भेद।

यूरोपियन समाजने अनेक महात्मा लोगोंको पैदा किया है। वहाँ शिल्प, विज्ञान और साहित्य नित्य उन्नत करता चला जारहा है। यह समाज आप ही अपनी महिमा को पग पग पर प्रमाणित करता हुआ आगे बढ़ रहा है। यदि इसका अपना ही घोड़ा न भड़क उठे तो हम ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते कि इसके रथको बाहरका कोई रोक सकेगा। ऐसे गौरवान्वित समाज को श्रद्धा के साथ सूक्ष्म दृष्टि से न देख कर जो लोग उस पर व्यंगवर्षा करते हैं वे इस देशके सुलभ लेखक बिना जाने अपनी ही हँसी उड़ाते हैं।

दूसरी ओर, इधर, कई सौ वर्षोंका लगातार विप्लव जिस समाज को मिट्टीमें नहीं मिला सका; हजारों दुर्गति सह कर भी जिस समाज ने भारतवर्ष को दया-धर्म और कर्तव्य के आधार पर सँभाल रक्खा है–रसातल में नहीं जाने दिया है, जो समाज सावधानी के साथ हिन्दू-समाज की बुद्धि और प्रवृत्ति की इस प्रकार रक्षा करता आया है कि बाहर से मसाला पाते ही वह प्रज्वलित-प्रकाशित हो सकती है; जिस समाज ने मूढ़ और अशिक्षित लोगों की मण्डली को भी पग पग पर प्रवृतिदमनपूर्वक अपने परिवार समाजके लिए स्वार्थत्याग करनेको अपने तंई वार देने को लाचार किया है; उस समाजको जो मिशनरी (पादरी) श्रद्धा के दृष्टिसे नहीं देखते वे भी श्रद्धा के योग्य नहीं है। उनको यह समझना चाहिए कि यह विराट् समाज एक बड़े भारी प्राणीके समान है। आवश्यक होने पर भी, इसके किसी एक अंग पर चोट करने के पहले इस प्राणीके शरीर-तत्त्वकी आलोचना कर लेनेकी बड़ी जरूरत है।

असल में सभ्यतायें भिन्न भिन्न हैं और यह विभिन्नता या विचित्रता ही विधाता को मंजूर है। यदि इस विभिन्नता के भीतर हम लोग ज्ञान से उज्ज्वल सहृदयता लेकर परस्पर प्रवेश कर सकें तो इस विचित्रता की