जैसे शिल्पके सम्बन्धमें हो रहा है वैसे ही और सब बातोंमें भी हम लोग विदेशी प्रणालीको ही एकमात्र प्रणाली समझते हैं। केवल बाहरी चीजों में ही नहीं, हम लोगों के मनमें, यहाँ तक कि हृदय में भी नकल का विषबीज घुस रहा है। देशके लिए इससे बढ़कर दूसरी विपत्ति हो ही नहीं सकती। इस महाविपत्तिसे छुटकारा पानेके लिए हम एक दृष्टिसे देसी रजवाड़ोंकी ही ओर ताक रहे हैं।
हम यह नहीं कहते कि विदेशी चीजोंको हम लेंगे ही नहीं। लेना तो जरूर ही होगा। किन्तु हम विदेशी चीजों को देसी ढंगसे लेंगे। दूसरे का अस्त्र खरीदनेमें हम अपना हाथ ही नहीं काट डालेंगे। एकलव्य की तरह धनुर्विद्याकी गुरुदक्षिणामें अपने दाहिने हाथका अँँगूठा नहीं दे देंगे। हमें यह याद रखना ही होगा कि अपनी प्रकृति, अर्थात् स्वभाव का उल्लंघन करनेसे दुर्बल हो जाना होता है। इसमें सन्देह नहीं कि शेर का भोजन बल बढ़ानेवाला होता है; मगर यदि कोई हाथी उसका लोभ करेगा तो वह अवश्य मरेगा। हमलोगों को लोभ में पड़कर प्रकृतिके विरुद्ध नहीं चलना चाहिए। किन्तु हम अपने धर्मकर्म में, रंगढगमें अर्थात् भाव-भेष-भोजन में नित्य वही करते चले जाते हैं। इसीसे हमारे जीवन-मरणकी समस्या दिनपर दिन जटिल होती जाती है। हम प्रकृतिके विरुद्ध चलकर कृतकार्य्य नहीं होते; उलटे बोझसे दबे जाते हैं। सच तो यह है कि जटिलता हमारे देशका स्वाभाविक धर्म नहीं है। सामानकी विरलता (कमी), अर्थात् जीवन-यात्राकी सरलता, ही हमारे देशकी अपनी सम्पत्ति है। इसीमें हमारा बल है; हमारा प्राण है; हमारी प्रतिभा है। यदि हम अपनी बैठकों से विलायती कारखानों का भारी जंजाल झाडूसे न बुहार फेकेंगे तो दोनों ही ओर से मरेंगे। अर्थात् विलायती कारखाने भी यहाँ नहीं चलेंगे, और बठकें भी हमारे बैठने या रहनेके लायक न रह जायँगी।