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भूगोल के सम्बन्ध में उनकी धारणा अधूरी रहती; केवल उनके काव्य, उनके समाजतन्त्र, उनके धर्मशास्त्र, उनके दर्शनशास्त्र एक अपूर्व शोभा-सुषमा और सम्पूर्णता को प्राप्त करते; वे मानों पृथ्वी को छोड़कर और किसी छोटे ग्रहमें निवास करते; उनका इतिहास, उनके ज्ञानविज्ञान और उनकी सुख सम्पदा उन्हीं में परिपूर्ण रहती। जैसे समुद्र का एक अंश धीरे धीरे चारों ओर मिट्टी की तह जम जाने से घिरकर एक एकान्त शान्तिमय सुन्दर सरोवर बन जाता है; और वह तरंगरहित रह कर सुबहशाम के विचित्र रंगों की छटा से जगमगाया करता है––अँधेरी रात के झलकते हुए स्थिर नक्षत्रों के प्रकाशमें चुपचाप चिर रहस्य की चिन्तामें डूबा रहता है वही हाल यहाँका होता।

यह सच है कि कालके प्रबल प्रवाह में, परिवर्तन कोलाहल के केन्द्रमें, प्रकृति (Nature) की हजारों शक्तियों के रणकी रंगभूमि के बीच क्षोभ को प्राप्त होने––इधर उधर टक्करें खानेसे एक प्रकार की खूब कड़ी शिक्षा और सभ्यता प्राप्त होती है; किन्तु यही कैसे कहा जा सकता है कि निर्जनता, निस्तब्धता और गंभीरतामें उतरने से कोई रत्न हाथ नहीं लगता।

इस आन्दोलन-पूर्ण संसार-सागर में ऐसी निस्तब्धताका अवसर कोई जाति नहीं पा सकी। जहाँ तक मैं समझता हूँ, केवल भारत ने ही एक समय दैवसंयोग से वह विच्छिन्नता प्राप्त कर––सबसे अलग हो कर संसार-सागर में गोता लगाया था और वही उसकी तह तक पहुँचा था। जैसे जगत असीम है वैसे ही मनुष्य का आत्मा भी असीम है; अतएव जिन्होंने उस अप्रकट भीतरी भाग या देशका मार्ग खोज निकाला था उन्होंने कोई नया सत्य या कोई नया आनन्द नहीं प्राप्त किया; यह कहना अत्यन्त अविश्वास की बात है