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न बना सका उस पत्थर के साथ? प्रबलता हमेशा से निर्बल के प्रति दयाहीन रही है; हम उसी आदिम पशु–प्रकृति को कैसे जीतेंगे? सभायें करके? या प्रार्थना करके? आज ज़रा सी भीख पाकर और कल एक गहरी डाँट खाकर? नहीं, यह तो कभी न होगा।

तब फिर कैसे जीतेंगे? प्रबल के बराबर सबल होकर? हाँ, यह हो सकता है। किन्तु जब विचार करके देखता हूँ कि यूरोप कितना प्रबल है और किन किन कारणों से प्रबल है; जब इस दुर्दम्य शक्ति को कभी शरीर और मन से, सम्पूर्ण रूप से, अनुभव करके देखता हूँ तब फिर आशा नहीं होती । जी में आता है कि आओ भाई, सहनशील होकर रहें––सबको प्यार करें––ने की करें। हम पृथ्वी पर जो कुछ काम करें उसे सचाई के साथ करें, ढोंग न करें। क्योंकि असमर्थ के लिए मुख्य विपत्ति यही है कि वह कोई भारी काम नहीं कर पाता, इसी कारण भारी ढोंग को अच्छा समझता है। वह नहीं जानता कि मनुष्यत्व प्राप्त करने के लिए भारी झूठ की अपेक्षा छोटा सत्य अधिक मूल्यवान् है––अधिक कामकी चीज है ।

मैं उपदेश देने नहीं बैठा हूँ। मैं केवल यही देखने की चेष्टा करता हूँ कि हमारी असली हालत क्या है। किन्तु उसे देखने के लिए न तो प्राचीन वेद, पुराण, संहिता आदि खोलकर उनमें से मनमाने-अपने मतलब के श्लोक एकत्र करके किसी एक कल्पना-मय काल की सृष्टि करनी होगी, और न अन्य जाति की प्रकृति और इतिहास के साथ अपनी कल्पना मिलाकर, अपने को उसी में लीन करके, इस नवीन शिक्षा की कमजोर नीव पर भारी दुराशा का किला खड़ा करने की जरूरत है। हमको केवल यही देखना होगा कि हम कहाँ पर हैं। हम जहाँ पर स्थित हैं वहाँ पर पूर्व दिशा से भूतकाल की और पश्चिम दिशा से