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स्वदेश–

अपने हाथ में अगर रोशनी नहीं है तो केवल अनुसन्धान के द्वारा प्राचीन काल की तह में गढ़ा खोदकर चाहे जितने खनिज पदार्थों के ढोके निकाल लाओ वे सब किसी काम के नहीं हैं। फिर हम उन्हें आप निकालते भी तो नहीं हैं; अँगरेज़ों की रानीगंज की आढ़त से खरीद लाते हैं। इसमें भी कोई चिन्ता नहीं; किन्तु हम करते क्या हैं? आग तो है नहीं, केवल फूंक मारते हैं और कागज हिला हिलाकर हवा करते हैं। कोई कोई ऐसे भी हैं जो उसपर सेंदुर पोत कर सामने बैठे भक्तिभाव से घंटा बजा रहे हैं।

हमको याद रखना चाहिए कि जब हममें सजीव मनुष्यत्व होगा तभी हम प्राचीन और आधुनिक मनुष्यत्व को, पूर्व और पश्चिम के मनुष्यत्व को अपने व्यवहार में––काम में ला सकेंगे।

मृत मनुष्य ही जहाँ का तहाँ पड़ा रहता है। जो जीवित है वह दशों दिशाओं में चलता-फिरता आता-जाता है। वह भिन्नता में ए-कता स्थापित करके परस्पर विपरीत भावों के बीच पुल बाँध सारे सत्य तक अपनी पहुँच कर लेता है––उस पर अपना अधिकार कर लेता है। वह एक ओर झुकने को नहीं, किन्तु चारों ओर फैलने को ही अपनी यथार्थ उन्नति जानता है।