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स्वदेश–

भी उस धूलिधूसरित आकाश के तले घर घर जन्म-मृत्यु और सुख दुख का काम जारी था। वह काम आँधी के मारे चाहे देख न पड़े, पर हमारे लिए वही जानने की चीज है; हमें इस समय उसी के जानने की जरूरत है। किन्तु हमारे लिए वही प्रधान ज्ञेय होने पर भी, विदेशी के लिए वह आँधी ही प्रधान है। उस आँधी की धूल उसकी आँखों में ऐसी भर गई है कि वह और कुछ देख ही नहीं सकता। इसका कारण यही है कि वह हमारे घर के बाहर है। इसीसे हम विदेशी लेखकों के लिखे भारत के इतिहास में उसी धूल उसी आँधी का वर्णन पाते हैं; अपने घर का हाल कुछ नहीं पाते। वह इतिहास पढ़ने से जान पड़ता है कि उस समय भारतवर्ष था ही नहीं; केवल मुगल-पठानों के गर्जन पूर्ण बबण्डर, सूखे पत्तों के सदृश, झण्डे उड़ाकर उत्तर से दक्षिण और पश्चिम से पूर्व तक घूम रहे थे।

किन्तु असल बात तो यह है कि उस समय भी हमारा देश था। यदि नहीं था, तो इस उपद्रव-उत्पात के समय में भी, रणजीतसिंह शिवाजी, राणा प्रतापसिंह, कबीर, नानक, चैतन्यदेव, तुकाराम, रामदास, आदि कहाँ पैदा हुए? तुलसी, सूर, भूषण आदि कवियों ने कहाँ जन्म लिया? उस समय दिल्ली और आगरा ही न था; काशी, नवद्वीप, पंजाब, राजपूताना और महाराष्ट्र–प्रान्त भी था। इन सपूतों ने जिस समय जन्म लिया उस समय हमारे घरमें––असली भारतवर्ष में वेगसे जीवनस्रोत बह रहा था। उस समय हमारे घर में जो चेष्टा की लहरें उठ रही थीं, जो सामाजिक परिवर्तन हो रहे थे, उनका ब्यौरा विदेशियों के लिखे इतिहास में कहीं नहीं मिलता।

यह सब होने पर भी, पाठ्यपुस्तकों से बहिर्भूत उसी भारत के साथ हमारा चिर-सम्बन्ध है और वह सम्बन्ध स्वाभाविक होने के कारण