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स्वदेश–

इस झोंक पर ही सब कुछ करने-धरने का भार न डालकर संयत सुशृंखला-युक्त कर्तव्य-व्यवस्था पर करने-धरने का भार देना ही भारतवर्ष के समाज का नियम या ढंग है। समाज यदि सजीव रहे , बाहरी आघात से बदहवास न हो जाय तो इसी नियम या ढंग से सब समय समाज में सामञ्जस्य बना रहता है––उसमें एक ओर खलबली मच जाने से वह दूसरी ओर शून्य नहीं हो जाता। समाज के सभी लोग अपने आदर्श की रक्षा करते हैं और अपना काम करके उसी में अपना गौरव समझते हैं।

किन्तु काम में एक प्रकार की झोंक होती ही है। उस झोंक में आदमी अपने परिणाम को भूल जाता है; अर्थात् यह नहीं सोचता कि इसका नतीजा क्या होगा। काम ही उस समय लक्ष्य बन जाता है। केवल कर्म के वेग की धारा में अपने को छोड़ देने में एक प्रकार का सुख होता है। इसी कारण कर्म का भूत कामकाजी आदमी को पाकर उसके सिर पर सवार हो बैठता है।

केवल यही नहीं। काम का पूरा करना ही जब अत्यन्त प्रधान या आवश्यक बन जाता है, तब उपाय का विचार धीरे धीरे गायब हो जाता है। तब काम करनेवाले को संसार के साथ––उपस्थित आवश्यकता के साथ-तरह तरह से निपटेरा करके चलना पड़ता है।

अतएव जिस समाज में कर्म है, उस समाज में कर्म को संयत रखने की–कर्म के वेग को सँभाले रखने की–व्यवस्था रहनी चाहिए। ऐसा सावधान पहरा रहना चाहिए जिसमें अन्ध कर्म ही मनुष्यत्व के ऊपर कर्तृत्व न पास के। कामकाजी मनुष्यों के दल को बराबर ठीक रास्ता दिखाने के लिए कर्म के कोलाहल में विशुद्ध 'सुर' को बराबर ज्यों का त्यों बनाये रखने के लिए–एक ऐसे दल की आवश्यकता है जिसके