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स्वाधीनता।


अपने शत्रुओं से अपनी तारीफ सुनते थे उस समय उनके मन में अपने धर्म की जितनी स्फूर्ति और उस पर उनकी जितनी श्रद्धा होती थी उतनी, बाद में, कभी नहीं हुई। क्रिश्चियन धर्म के अधिक प्रचलित न होने का यही प्रधान कारण है। इसीसे उसका प्रचार बहुत धीरे धीरे हो रहा है। अठारह सौ वर्ष बीत गये तथापि योरप के रहनेवालों और उनके वंशजों को छोड़कर और कहीं भी उसका प्रवेश नहीं हुआ। जो लोग सबसे अधिक धार्मिक हैं; जिनका विश्वास अपने धर्म पर बहुत ही अधिक है; जिनको अपने धर्मसिद्धान्तों का बहत खयाल है; और जो मामूली आदमियों की अपेक्षा उन सिद्धान्तों के अर्थ को अधिक मान्य समझते हैं-उनके भी मतमें बहुधा कालविन और नाक्स आदि धर्मसंशोधकों के मतों की ही अधिक स्फूर्ति देख पड़ती है; क्योंकि उनके मत इन लोगों के मत से बहुत कुछ मिलते हैं। यह नहीं कि क्राइस्ट के वचनों को ये लोग बिलकुल ही भूल जाते हों। वे उन्हें भूलते तो नहीं; परन्तु उनसे कोई काम नहीं लेते; वे निष्क्रिय रूप में उनके मन में पड़े रहते हैं। उनमें से जो वचन मृदु, मधुर और मनोहारी होते हैं उनको सुनकर हर आदमी के हृदय पर जो असर होता है वह उनके हृदय पर भी होता है। इसमें सन्देह नहीं। परन्तु इसके आगे और कुछ नहीं होता। इसके कई कारण हैं कि सब धर्मों की जितनी बातें एकसी होती हैं उनकी अपेक्षा प्रत्येक धर्म की विशेष बातों में क्यों अधिक सजीवता रहती है और उनके अर्थ का ध्यान अनुयायियों के मन में हमेशा बना रखने के लिए उस धर्म के अध्यक्ष या आचार्य क्यों इतना परिश्रम उठाते हैं? उनमें से एक कारण यह है, और उसके होने में कोई शंका भी नहीं है, कि सब धर्मों की विशेष वातों ही पर अधिक कटाक्ष होते हैं; और उन बातों को झूठ बतलानेवालों के आक्षेपों का खण्डन भी अधिक करना पड़ता है। लड़ाई के मैदान में दुश्मन के न रहने से गुरु और चेला, दोनों अपनी अपनी जगह पर निःशंक सो जाते हैं।

जो बातें पुश्त दर पुस्त होती आई है, जो मत वंश-परस्परा से प्राप्त हुए हैं, उनकी भी बहुत करके यही दशा है-फिर चाहे उनका सम्बन्ध नीति से हो, चाहे सांसारिक व्यवहार से हो। जितनी भाषायें हैं, और जितनी पुस्तकें। हैं, सब में जगह जगह पर, यह लिखा है कि संसार क्या चीज है, उसमें कैसे