पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८९
दूसरा अध्याय।


उसका योग होना चाहिए, अतएव उसके साथ ही जिन दूसरे सिद्धान्तों का भी स्वीकार होना चाहिए, उनसे वह अंश अलग रहता है। इसी अलग अवस्था में वह आदमियों के मन में स्थान पाता है। इस प्रकार जो सत्यांश भूल से नहीं स्वीकार किया जाता, या जिसका प्रतिबन्ध कर दिया जाता है, उसके आधार पर बने हुए सिद्वान्तों में से कुछ सिद्धान्त विरुद्ध-पक्षवाले स्वीकार कर लेते हैं और उनके द्वारा रूड़ि के बन्धनों को वे तोड़ डालते हैं। दूसरे पक्षवाले कभी कभी इन सिद्धान्तों की सत्यता से रूढ़ मत की सत्यता का लाश्य दिखलाने की कोशिश करते हैं-अर्थात् वे यह साबित करना चाहते हैं कि दोनों में किसी तरह का विरोध नहीं और कभी कभी वे अपने विरोधी ले इस बुनियाद पर विवाद करने लगते हैं कि सत्य का सब अंश हमारे ही सिद्धान्त में है, तुम्हारे में नहीं। पिछले तरीके ने आदमियों के दिल में अधिक जगह पाई है; आदमियों ने उसे अधिक स्वीकार किया है। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह बहुत करके किसी एक ही पक्ष को स्वीकार करता है। एक से अधिक पक्षों को शायद ही कोई स्वीकार करता हो। अतएव जिस समय मतक्रान्ति होती है-जिस समय प्रचलित मतों से बहुत व्यापक फेरफार होते हैं-उस समय भी सत्य का एक अंश स्वीकार कर लिया जाता है और दूसरा छोड़ दिया जाता है। जो कुछ ज्ञात है उससे अधिक जानने, अर्थात् पहले प्राप्त हुए ज्ञान की वृद्धि करने, का नाम उन्नति या सुधार है। पर उन्नति में भी आदमी अकसर सत्य के एक ही अंश को ले लेते हैं। दूसरे को वे छोड़ देते हैं। विशेषता इतनी ही होती है कि सत्य के जिस अंश का स्वीकार किया जाता है उसकी, छोड़े गये सत्यांश की अपेक्षा, अधिक जरूरत रहती है और वह समय के अधिकतर अनुवल भी होता है। इससे इतना ही फायदा होता है। यही उन्नति है और यही सुधार। जितने रूढ़ मत हैं पूर्णता किसी में नहीं। वे चाहे सत्य के ही आधार पर निश्चित हुए हों, पर सत्यता का अंशमात्र उनमें रहता है। अतएव उन रूढ मतों में सत्य के जिस अंश की कमी है वह अंश जिन विरोधी मतों में हो उन सब को कीमती समझना चाहिए-चाहे उनमें जितनी भूलें हों और चाहे उनमें जितनी गड़बड़ हो। जो लोग ऐसे तत्त्व या सिद्धान्त प्रकट करते हैं जिसको शायद हम अपने आप कभी न जान सकते, उनपर इसलिए क्रोध करना कि उनको वे तत्त्व या सिद्धान्त नहीं