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स्वाधीनता।


मालूम जो हमको मालूम हैं, बड़ा अन्याय है। शान्तचित्त होकर जो आदमी सांसारिक व्यवहार की बातों पर विचार करेगा वह इसे कभी उचित न समझेगा। उसे उलटा यह समझना चाहिए कि जब तक रूढ़ या प्रचलित बातों की एकपक्षीय विवेचना होती है-उन पर लोग एकतरफी विचार करते हैं-तब तक विरोधी विचारकों का होना बहुत ही जरूरी है। अर्थात् विरुद्ध-तत्त्वों का प्रतिपादन करनेवाले प्रतिपक्षी दल के न होने से काम नहीं चल सकता। क्योंकि रूढ मतवालों के ध्यान को ऐसे ही प्रतिपक्षी अधिक उत्साह और अधिक परिश्रम से अपनी तरफ खींचते हैं। ऐसे ही प्रतिपक्षियों के द्वारा रुढ़ मत के अनुयायी उस सत्यांश के जानने में समर्थ होते हैं जिसकी, उनके मत में, कमी होती है और जिले उनके प्रतिपक्षी सत्य का सर्वांश समझते हैं।

अठारवें शतक में प्रायः सारे शिक्षित और उनको अगुवा माननेवाले सारे अशिक्षित आदमी, नई विस्मयजनक सभ्यता और नये विस्मयजनक विज्ञान, साहित्य और तत्त्वशास्त्र को अचम्भे की दृष्टि से देखने में ड्रम से गये थे। वे लोग बढ़ चढ़कर बातें करते थे और कहते थे कि नये और पुराने जमाने के आदमियों में बड़ा अन्तर है। सब विषयों में वे पुराने जमाने के आदमियों की अपेक्षा अपने को श्रेष्ट समझते थे। ऐसे समय में रूसो के असत्याभासरूपी (सच होकर बाहर से झूठ मालूम होनेवाले) बम के गोलों ने गिरकर एकतरफी मतों के बने बनाये ढेर को अस्तव्यस्त कर दिया और उनके तत्वों के टुकड़ों को दूसरे तत्वों के टुकड़ों के जोड़से अपना आकार पहले की अपेक्षा अधिक अच्छा बना लेने में सहायता पहुंचाई। कहिए, इससे कितना फायदा हुआ? जितने मत उस समय रूड़ थे वे सब रूसो के मतों की अपेक्षा सत्य से अधिक दूर न थे। उल्टा वे उसके अधिक निकट थे। अर्थात रूसो के मतों में सत्य का जितना अंश था प्रचलित मतों में उससे अधिक


  • रूसो, स्विटजरलेण्ड के जनीवा नगर में, १७१२ ई० में, पैदा हुआ। इसकी राय थी कि समाज की अनुमति से गवर्नमेंट की स्थापना होनी चाहिए। इससे कई देश इसके खिलाफ हो गये-विशेप करके फ्रांस। इसने नीतिविषयक कई ग्रन्थ लिखे हैं। फ्रांस में जो घोर राजविप्लव हुआ उसके कारणों में से इसके ग्रन्थों का प्रचार भी एक कारण था।