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स्वाधीनता।


यदि कदाचित् उसकी कल्पना ऐसी हो जाय तो अचम्भे की बात होगी। इस नई पुस्तक में पुरानी नीति का जिक्र जगह जगह पर है जहां कहीं उसमें नीति की बात है वहां उसका सम्बन्ध पुराने जमाने से है। उसमें नीति-विषयक जो नियम हैं वे या तो पुराने नीतिशास्त्र की भूलें दिखलाने के लिए हैं या पुराने नियमोंको अधिक व्यापक और अधिक ऊंचे बनाने के लिए हैं। इसके सिवा और कोई आभिप्राय उनका नहीं है। फिर इस नई धर्म-पुस्तक में जो नीति-नियम हैं वे इतने साधारण हैं कि उनका ठीक ठीक शब्दार्थ समझना बहुधा असम्भव है। काव्य की भापा जैसी सरस, धारावाही और आलङ्कारिक होती है वैसी ही इसकी भी है। धर्मशास्त्र, कानून, की सी निश्चित और नियमित भाषा इसकी नहीं है। यह नहीं कि जिस शब्द या वाक्य का प्रयोग जिस अर्थ के लिए किया गया हो वही उससे निकले। यह इसमें बहुत बड़ा दोष है। बिना पुरानी धर्म-पुस्तक की मदद के नई पुस्तक से नीतिसम्बन्धी नियमों को अलग करने में आज तक किसी को कामयावी नहीं हुई। पुरानी पुस्तक परिष्कृत अवश्य है-उसकी नियमावली विस्तृत अवश्य है-पर अनेक विषयों में उसके नियम सभ्यता की हद के बाहर चले गये हैं। सच तो यह है कि ये नियम सिर्फ असभ्य, अर्थात् अनार्य जंगली, लोगों ही के लिए हैं। क्रिश्चियन लोगों में सेंट पाल एक महात्मा हो गया है। वह पुरानी धर्म-पुस्तक की सहायता से क्राइस्ट के नीति-नियमों का कभी अर्थ न करता था--कभी उनका समर्थन न करता था। इस तरह के समर्थन इस तरह की व्याख्या-का वह पूरा दुश्मन था। परन्तु वह अपने मालिक की उक्तियों की व्याख्या एक और ही तरकीय से करता था। वह क्राइस्ट, अर्थात् ईसा, की कही हुई नीति के पहले भी नीति-शास्त्र का होना कवल करता था। ग्रीक और रोमन लोगों के नीतिशास्त्र ईसा के बहुत पहले वन चुके थे। सेंट पाल इन शास्त्रों को मानता था। उसने क्रिश्चियनों को जो उपदेश दिया वह बहुत करके इन्हीं नीतिशास्त्रों के आधार पर दिया यहां तक कि लोगों को गुलाम बनाना तक उसने -सशास्त्र बतलाया। यह बात उसके उपदेशों से साफ मालम होती है। जिसे लोग क्रिश्चियन नीति कहते हैं उसे यदि वे आध्यात्मिक या पारमार्थिक नीति कहें तो उनका कहना अधिक सयौक्तिक हो। क्योंकि उस नीति की रचना न तो क्राइस्ट ने की और न उसके प्रेरित दूतों या चेलों