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दूसरा अध्याय।


ही ने की। वह उनके बहुत दिन बाद तैयार हुई है। पहले पांच सौ वर्षों में कैलिक सम्प्रदाय के अनुयायियोंने धीरे धीरे उसकी रचना की। आज कल के आदमियों और प्राटेस्टेंट-सम्प्रदाय के अनुयायियों ने यद्यपि इस नीति को आंख बन्द करके नहीं स्वीकार कर लिया, तथापि, उन्होंने आशानुरूप विशेष फेरफार भी उसमें नहीं किये। मध्ययुग में जितनी नई नई बातें इस नीति में शामिल हो गई थीं उन्हींको निकाल कर इन लोगों ने अपने अपने पन्थ या समुदाय के अनुकूल उनकी जगह और बातें रख दी। बस इतने ही में उन्होंने सन्तोष किया। मैं इस बात को खुशी से मानता हूं कि इस क्रिश्चियन-नीति और उपदेशकों ने बहुत बड़े उपकार का काम किया है। इसके लिए सारी दुनिया उनकी ऋणी है। पर यह कहते मुझे संकोच नहीं कि बहुतले महत्त्व के विषयों में यह नीति अपूर्ण और एकपक्षीय है। और यदि ऐसे बहुतसे विचार और व्यवहार, जिनकी मंजूरी इस नीति में नहीं है, योरपवालों के काम-काज, रीति-रस्म और चाल-चलन में स्थान न पाते तो उनकी कभी इतनी उन्नति न होती। उनकी इस समय जो हालत है उससे कहीं बदतर होती। क्रिश्चियन-नीति में विप्रतिकार ही की अधिकता है; उसके सब नियम बहुत करके निपेधरूपी ही हैं। जो कुछ उसमें है उसका अधिक अंश मूर्तिपूजा ही के विरुद्ध है। उसकी झोंक आज्ञा देने की अपेक्षा मना करने की तरफ अधिक है; काम करने की अपेक्षा बेकार रहने की तरफ अधिक है; सज्जनता की अपेक्षा भोलेपन की तरफ अधिक है। वह यह नहीं कहती कि खूब उत्साह के साथ सत्कार्य करो; वह कहती है कि पापात्मा मत बनो-पाप से दूर रहो। उस नीति में इस तरह के वचन बहुत कम हैं कि-"तू यह काम कर।" पर इस तरह के वचन बहुत हैं कि-"तू यह काम मत कर।" लोगों में विपयासक्ति की अधिकता देख बेहद घबरा कर उसने वैराग्य की महिमा बहुत ही बढ़ा दी यहां तक कि विरक्त होना धीरे धीरे न्यायसङ्गत और धर्मानुसार माना जाने लगा। वह कहती हैं कि सदाचरण का एक मात्र फल स्वर्ग की प्राप्ति और नरक से बचना है। इस विषय में यह नीति पुराने जमाने के कुछ उत्तमोत्तम धार्मिकों की नीति की अपेक्षा बहुत ही कम योग्यता की है। क्योंकि इससे स्वार्थ-साधन की इच्छा विशेष बढ़ गई है और लोगों के मन से यह बात उतरती चली जारही है कि परोपकार करना भी