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स्वाधीनता।


यियों की कृपा का फल नहीं है। वह सिर्फ उन्हीं लोगों का प्रसाद नहीं है जो क्रिश्चियन मत के सिद्धान्तों को नहीं जानते थे; किन्तु उनका भी है जो इस मत के सिद्धान्तों को अच्छी तरह जानकर भी उन्होंने उनको कबूल नहीं किया। इस बात पर धूल डालने की कोशिश करना गोया सत्य को छिपाना है। इस तरह की अनुचित काररवाई से सत्य की सेवा नहीं हो सकती-सत्य की उन्नति नहीं हो सकती-सत्य की प्रीति नहीं बढ़ सकती।

मेरा यह मतलब नहीं है कि जितने मत हैं उन सब को प्रकट करने के लिये बेहद व बेहिसाब स्वतन्त्रता देने से जितने धार्मिक सम्प्रदाय हैं और जितने तत्त्वज्ञान-सम्बन्धी पन्थ हैं उनकी सारी बुराइयों का एकदम संहार हो जायगा। जो अल्पज्ञ हैं वे जब अपने मत की योग्यता की विवेचना करेंगे; वे जब अपने सिद्धान्तों के विषय में उपदेश देंगे; वे जब अपनी समझ के अनुसार बर्ताव करेंगे; तब उनको जरूर खयाल होगा कि उनके मत से अच्छा और कोई भी मत दुनिया में नहीं है; और यदि है भी तो उसमें कोई बात उनके स्वीकार करने लायक नहीं है। लोगों को वादविवाद और विवेचना की चाहे जितनी अधिक स्वतन्त्रता दीजाय, जुदा जुदा पन्थों का बनना बन्द न होगा। यह मैं अच्छी तरह जानता हूं। जो बात अपनी दृष्टि में नहीं आई उसे जब अपने विरोधी बतलावेंगे तब लोग और भी अधिक चिड़ जायंगे; और भी अधिक उससे द्वेष करने लगेंगे; और पहले से भी अधिक दृढ़ता से उसका त्याग करेंगे। यह सब सच है। परन्तु हठपूर्वक वादविवाद करनेवाले परस्पर विरोधी-दलों पर इस विवेचना का यद्यपि कुछ भी अच्छा असर न होगा, तथापि जो लोग तटस्थ रहकर शान्तिपूर्वक इस विवाद को सुनेंगे उनके चित्त पर इसका जो असर होगा वह बहुत ही हितकर होगा। सत्य के किसी अंश का बिलकुल ही लोप कर देने से जितना अहित होता है उतना अहित उसके कुछ अंशों में परस्पर विरोध पैदा होजाने से नहीं होता; फिर चाहे वह विरोध जितना प्रबल हो। जब लोगों के मन में यह बात जम जाती है कि दोनों पक्षवालों की दलीलें सुनना ही चाहिए तक भलाई की जरूर आशा होती है। पर जब आदमी हठधर्मी करके किसी एक पक्ष की तरफ झुक पड़ते हैं तब जरूर अधिक भूलें होती हैं; और तभी मिथ्याविश्वास को अधिक मजबूती आती है। इस दशा में सच बात झूठ हो है। इससे उसका परिणाम भी बुरा होता है। जब किसी विषय में