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दूसरा अध्याय।


और और नीतिशाखों के नियमों की पाबन्दी करने में क्रिश्चियन नीतिशास्र के नियमों को भुला देने, या उनके अनुसार व्यवहार न करने की सलाह नहीं देता। मैं यह नहीं कहता कि जो तत्व क्रिश्चियननीति में नहीं हैं उन तत्वों को और लोगों की नीति से ले लेने में जो तत्त्व क्रिश्चियन-नीति में हैं उनको भूल जाय। ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं। ऐसा करना अच्छा भी नहीं। तथापि इस तरह की भूल होना सम्भव भी नहीं। मिथ्या विश्वास रखनेवाले पाखण्डी आदमियों से ऐसी भूल हो सकती है। दूसरे नीतिशात के तत्व वे मूल सकते हैं। ऐसी भूल का होना बुरा है, अनुचित है, अहितकर है। इसमें सन्देह नहीं। औरों की नीति से अच्छी अच्छी बातें ले लेने में फायदा है; और बहुत फायदा है। इलसे उस फायदे के खयाल से इस तरह की भूलों की परवा न करना चाहिए। किसी नई चीज के पाने में कुछ खर्च भी करना पड़ता है। इल बातको ध्यान में रखना चाहिए और इस तरह की भूलों को, होनेवाले उल बहुत बड़े फायदे की कीमत समझना चाहिए। हमारे नीतिशास्त्र में सत्य का सर्वांश नहीं है; सिर्फ उसका कुछ अंश भर है। अर्थात् उलमें थोड़ा ही सत्य है। ऐसा होने पर भी जो इस बात का दावा करते हैं कि थोड़ा नहीं, पूरा सत्य, उसमें विद्यमान है उनका यह बहुत पड़ा फर्ज है-बहुत बड़ा कर्तव्य है कि उनके इस दावे के विरुद्ध जो आक्षेप हों उनको वे सुनें। यदि आक्षेप करनेवाले, अर्थात् विरोधी दल के लोग, भी यह कहने लगे कि हमारे ही मत में सत्य का सर्वांश है; उसमें सत्य की जरा भी कमी नहीं है तो उनका भी यह दावा सर्वथा अनुचित है। वह कभी न्यायसङ्गत नहीं कहा जा सकता। ऐसे दावे को सुन कर हम अफसोस कर सकते हैं; पर उसे रोक देना हमें उचित नहीं। उचित हमें यह है कि हम इस तरह के दावे का युक्तिपूर्ण खण्डन करें और यथारीति उसे घट साबित कर दें। क्रिश्चियन लोग जिन पर-धर्मवालों को नास्तिक, धर्मनिन्दक या अविश्वाली कहते हैं उनको यदि वे यह सिखलाना चाहें कि वे निश्चियन धर्म के विषय से पक्षपात छोड़कर जो कुछ कहना हो कहें, तो निशियनों को चाहिए कि वे भी परधर्मवालों के धर्मसम्बन्ध में पक्षपात छोड़ दें। जिन लोगों का इतिहास से थोड़ा भी परिचय है वे भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि नीति के जितने तत्व है बहुत ही उदार और बहुत ही अनमोल हैं उनका सब से अधिक भाग शिश्चियन धर्म के अनुया-