होगा और किस जगह तक न जाने से सीमा का उल्लंघन न होगा? पर इस तरह की सीमा नियत करना असम्भव है—नामुमकिन है। यह बात अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध की जा सकती है। क्योंकि जिसके मत के विरुद्ध विवेचना की जाती है—जिसकी बात का खंडन किया जाता है—उसको क्रोध आना या बुरा मालूम होना ही यदि सीमोल्लंघन का प्रमाण या चिह्न माना जाय तो तजरुबा इस बात की गवाही दे रहा है कि जब जब प्रतिकूल समालोचना, विरुद्ध वाद या दूसरे के मत का खंडन खूब प्रबल और खूब प्रभाव से भरा हुआ होगा तब तब जिन लोगों के मत के प्रतिकूल विवेचना होगी उनको जरूर ही बुरा लगेगा। विरोधी पक्ष का जो जो आदमी उनकी दलीलों को विशेष सबल प्रमाणों द्वारा काटेगा और खूब जी जान लड़ाकर उनको निरुत्तर कर देगा उस उस पर मर्य्यादा के बाहर जाने का जरूर ही इलजाम लगाया जायगा। इस दशा में विरोधियों को यह जरूर ही मालूम होगा कि उसने विवेचना की सीमा का उल्लंघन किया। व्यवहार की दृष्टि से देखने में यह बात यद्यपि महत्त्व की मालूम होती है तथापि यह एक ऐसी प्रधान आपत्ति है—एक ऐसा खास उज्र है—कि उसके सामने यह बात कोई चीज ही नहीं। कोई मत सच होने पर भी यदि उसके विवेचन की रीति सदोष है तो उसके प्रतिकूल आपत्ति हो सकती है और वैसी विवेचना करनेवाले की निर्भर्त्सना भी की जा सकती है। ऐसी हालत में उसकी मलामत करना, उसकी निन्दा करना, उसे दोषी ठहराना बहुत उचित होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु इस तरह के मुख्य दोष ऐसे होते हैं कि दोषी आदमी, भूल से, या और किसी अचानक घटना के पेंच में पड़कर, यदि उनको खुद ही कबूल न करले, तो उनके सदोष होने के विषय में उसे कायल करना—उसे अपना दोष मान लेने के लिये विवश करना—प्रायः असम्भव होता है। अनुचित या धोखेसे भरी हुई दलीलें पेश करना; प्रमाणों या प्रत्यक्ष बातों को छिपाना; जिस विषय की विवेचना हो रही है उसके कुछ अंशोंका अन्यथा वर्णन करना; और विरोधी पक्ष के मत को और ही रूप देना—इत्यादि इस विषय के बहुत बड़े बड़े दोष है। तथापि ये सब महा दोष आदमियों के हाथ से हमेशा ही हुआ करते हैं; और ऐसे वैसे आदमियों के हाथ से। फिर, ये लोग इन बातों को दोष ही नहीं समझते। इस प्रकार की नीति का अवलम्बन वे बुद्धिपुरःसर करते हैं। अतएव
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