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स्वाधीनता।

सप्रमाण और अन्तः-करणपूर्वक यह कहना बहुत कठिन जाता है कि वे लोग जान बूझ कर ऐसा अपराध करते हैं—जान बूझ कर वे किसी बात को अन्यथा सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। इस कारण वाद-विवाद और विवेचना से सम्बन्ध रखनेवाले इस बुरे व्यवहार का—इस बुरी काररवाई का—कानून के द्वारा प्रतिबन्ध करना कभी उचित, योग्य और न्यायसङ्गत नहीं हो सकता। जिस वाद-विवाद को लोग अपरिमित, संयसहीन या कोपगर्भित कहते हैं उसमें कुचेष्टा, उपहास, गाली, व्यङ्ग और व्यक्ति-विशेष सम्बन्धी नोक झोंक आदिका अन्तर्भाव होता है। यदि कोई यह सलाह दे कि वाद-विवाद के इन तेज हथियारोंसे दोनों पक्षवालों में से कोई भी काम न ले तो उसका कहना अधिक युक्तिसंगत होगा। पर उसकी बात सुनेगा कौन? क्योंकि लोगों का खयाल यह हो रहा है कि सिर्फ रूढ़, अर्थात् प्रचलित, मत के विरुद्ध बोलनेवालों को इन शस्त्रों से काम लेने की मनाई होनी चाहिए। पर जो मत रूढ़ नहीं हैं—जो बातें प्रचलित नहीं हैं—उनके विरुद्ध यदि कोई इनसे काट करने लगे तो कोई उनको कुछ न कहे। यही नहीं, किन्तु, बहुत सम्भव है, लोग उसकी तारीफ भी करें और कहें कि इसे जो क्रोध आया वह बहुत ठीक आया और इसने आवेश में आकर जो कुछ कहा वह बहुत ठीक कहा। परन्तु, सच बात यह है कि इन शस्त्रों के उपयोग से सब से अधिक हानि हीन पक्षवालों ही की होती है। जो पक्ष निराश्रय है—जो पक्ष निर्बल है—उसीको अधिक क्षति पहुंचती है। और, यदि इन शस्त्रों का उपयोग बन्द कर दिया जाय, अर्थात् यदि इनके चलाने की मनाई हो जाय, तो जो मत रूढ़, अतएव प्रबल, होगा उसीको विशेष लाभ होगा। इस प्रकार का सबसे बड़ा अपराध अपने विपक्षी को दुःशील, दुर्जन या दुराचारी कह कर उसे कलङ्कित करना है। जो लोग अप्रचलित मत का पक्ष लेते हैं, अर्थात् जो मत रूढ़ नहीं है उसे जो स्वीकार करते हैं, उन पर ऐसे कलङ्क अधिक लगाये जाते हैं। ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम होती है। सब आदमी उनका दबाव नहीं मानते। इस बात की कोई परवा भी नहीं करता कि उनके साथ लोग बुरा बर्ताव कर रहे हैं या भला। यदि इस बात की परवा किसीको होती है तो सिर्फ उन्हींको होती है जिन पर ऐसे कलङ्क लगाये जाते हैं। पर जो किसी प्रचलित रीति या किसी प्रचलित मत पर आक्रमण करते हैं उनको लोग ये वचनशस्त्र नहीं उठाने देते। वे इन शस्त्रों को अच्छी