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स्वाधीनता।

तरह के बर्ताव की अपेक्षा दूसरी तरह का बर्ताव अच्छा है। अतएव मुझे विश्वास है कि इस तरह की दलीलें पेश करके कोई किसी से यह न कहेगा कि जैसा बर्ताव या जैसा व्यवहार और लोग कर रहे हैं वैसा ही तुम भी आंख मूंद कर करो। क्योंकि यदि कोई किसीको इस तरह का उपदेश देगा तो उस पर विचारशून्यता का आरोप जरूर आवेगा—उस पर यह इलाजाम जरूर लगाया जायगा कि वह कुछ नहीं समझता; उसे भले बुरे का बिलकुल ज्ञान नहीं है। ऐसा एक भी आदमी नहीं है जो इस बात को न मानता हो कि लड़कपन में सब को ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए—ऐसी विद्या सीखनी चाहिए—जिसकी सहायता से, आदमियों के आज तक के तजरुबे से निश्चित हुए सिद्धान्तों को, वे अच्छी तरह समझ सकें और उनके अनुसार बर्ताव करके अपना कल्याण भी कर सकें। जब आदमी की मानसिक शक्ति खूब परिपक्क हो जाय—जब उसकी विवेक-बुद्धि कमाल दरजे को पहुंचजाय—तब उसे इस बात का पूरा अधिकार होना चाहिए कि उस तजरुबे का अर्थ, जैसा उसे समझ पड़े, करे और उसे जिस तरह वह लाना चाहे, काम में लावे। इस तरह के अधिकार का वह पूरा हकदार है; इसे पाने का वह दावा कर सकता है। इस बात का फैसला वही कर सकता है—इसका निश्चय उसीके हाथ में है—कि इतिहास में जो तजरुबे—जो अनुभव—लोगों ने लिख रक्खे हैं उनमें से कौन उसके स्वभाव और उसकी अवस्था के अनुकूल हैं और कौन नहीं हैं। दूसरे लोगों के रीति-रवाज, व्यवहार और आचरण उनके तजुरबे की थोड़ी बहुत गवाही जरूर देते हैं—वे उनके अनुभव-ज्ञान के, किसी अंश में, प्रमाण अवश्य हैं। इसलिए उनको जरूर महत्त्व देना चाहिए और उनका जरूर आदर करना चाहिए। पर इस बात को भी न भूलना चाहिए कि, सम्भव है, उन लोगों का तजरूबा कम रहा हो; अथवा उस तजुरबे का ठीक मतलब ही उन्होंने न समझा हो। अथवा, मान लीजिए, कि उन लोगों ने अपने तजुरबे का मतलब बहुत ठीक समझा, पर वह हमारे सुभीते का नहीं। जितने रीति-रस्म हैं—जितने व्यवहार हैं—सब व्यावहारिक अवस्थओं और व्यावहारिक स्वभाव के आदमियों के लिए बनाये जाते हैं। पर, सम्भव है, किसीकी अवस्था, दशा, हालत और स्वभाव व्यवहारविरुद्ध हो। तो वह क्यों उन रीति-रस्मों को माने? क्यों वह वैसा व्यवहार करे? अच्छा, थोड़ी देर के लिये कल्पना कर लीजिए कि