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तीसरा अध्याय ।

उनका वर्ताव कैसा है ? या जिनकी स्थिति मेरी स्थिति से अच्छी है और जिनके पाल लम्पत्ति भी सुझसे अधिक है वे क्या करते हैं ? यह पिछला प्रश्न औरों की अपेक्षा और भी बुरा है। मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि अपनी पसन्द की बिलकुल ही परवा न करके लोग रूढ़, अर्थात् प्रचलित, रीति-रवाज की नकल करते हैं। मेरा मतलब यह है कि रूढ वातों को छोड़ कर और बातों की तरफ उनका मन ही नहीं जाता । अर्थात् लोगोंका मन रूढ़ि का दास हो गया है; रूढ़ि के जुये में मन को जोत देने की उन्हें आदत पड़ गई है। जो बातें लोग शौक से करते हैं उनमें भी वे अनुरूपता, सादृश्य या सुआफिकत हृढ़ते हैं। अर्थात् जो काम वे सुख-चैन के लिए करते हैं उसके विषय में भी वे पहले यह देख लेते हैं कि और लोग भी वैसा ही करते हैं या नहीं। जिसे बहुत आदमी पसन्द करेंगे उसे ही वे पसन्द करेंगे । साधारण रीति पर अपनी तरफ से यदि वे कुछ पसन्द करेंगे तो जो बातें और लोग करते हैं उन्ही में से एक आध को वे पसन्द करेंगे । कभी किसी नई वात को हूंढ कर वे उसे पसन्द न करेंगे। जिस तरह किसी महापातक या दुष्कर्म से लोग दूर भागते हैं उसी तरह वे रुचि-विशेप या आचरण विशेष से दूर भागते हैं । अर्थात् किसी विशेप प्रकार की रुचि था किसी विलक्षणता से भरे हुए आचरण से वे दूर रहते हैं। नवीनता से दे डरते हैं; वे उसके पास तक खड़े नहीं होते। इस तरह अपनी तबीयत के मुताबिक काम न करने से-अपने स्वभाव का अनुसरण न करने से- आदमियों के स्वभाव ही का नाश हो जाता है। उनमें स्वभाव की विशे- पता ही नहीं रह जाती। अतएव उनकी आदमियत-उनकी मानवी शक्ति- धीरे धीरे निर्जीव हो जाती है। उसकी पुष्टि के लिए जिन चीजों की जरूरत रहती हैं वे उसे मिलती ही नहीं; उनकी वह भूखी ही बनी रहती है । जिले पेट भर खाने को नहीं मिलता वह क्योंकर जिन्दा रह सकता है ? इस दशा में मनुष्य की स्वाभाविक शक्ति इच्छानुकूल वर्ताव की अभिलापा और वेगवती पालनामों की प्रेरणा को उत्पन्न करने के योग्य ही नहीं रह जाती। जिनकी स्वाभाविक शक्ति का यह हाल है उनकी निज की कोई राय ही नहीं होती-उनके निज के कोई मनोविकार ही नहीं होते । उनके मनमें इनकी उत्पत्ति ही नहीं होती। अब बतलाइए, भादमी के स्वभाव की यह दशा, पह अवस्था; यह गति, इष्ट है या अनिष्ट ?