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स्वाधीनता।


वश में रखने के लिए, जिस बात का नियमन करने के लिए, जिस बात पर सत्ता चलाने के लिए, समाज को और कोई युक्ति नहीं सूझी उसे उसने सर्वस्व के अन्तर्गत करके अपने अधीन कर लिया। इसका फल यह हुआ कि व्यक्ति-विशेषता धीरे धीरे कोई चीज ही न रह गई; वह समाज के बनाये हुए कानून, अर्थात् नियमों, की गुलाम बन गई। अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने के लिए पहले हर आदमी स्वतन्त्र था। पर वह बात अब न रही। उसकी स्वाधीनता छिन गई। वह समाज की आज्ञा के अनुसार आचरण करने के लिए विवश किया गया। पहले हर आदमी के मनोवेग और इच्छा-स्वातन्त्र्य के बढ़ जाने से हानि होने का डर था। पर अब उन्हींके बहुत कम हो जाने से हानि होने के निशान देख पड़ने लगे। अर्थात् स्थिति अब बिलकुल ही उलटी हो गई; बात अब बिलकुल ही बदल गई। पहले जो लोग अपने अधिकार या स्वाभाविक गुणों के कारण बहुत प्रबल थे उन्हींके मनोविकार समाज के बनाये हुए नियमों और रीति-रवाजों का उलंघन करते थे। अतएव उनके पेंच में आये हुए दुर्बल आदमियों को हानि से बचाने ही के लिए कटिन नियमों के द्वारा समाज को उनके मनोविकार नियंत्रित करने पड़ते थे; अर्थात् कानून बनाकर ऐसे अनुचित मनोविकारों की बाढ़ रोक दी जाने की जरूरत पड़ती थी। पर आज कल की दशा बहुत ही शोचनीय हो गई है। अब तो समाज के ऊंचे से ऊंचे दरजे के आदमियों से लेकर नीचे से नीचे दरजे के आदमियों तक, हर आदमी, जो कुछ करता है, इस तरह डरकर करता है मानो उसके आचरण की उलटी आलोचना करने और उसे सजा देने के लिए कोई तैयार ही बैठा हो। आज कल जिन बातों का दूसरों से सम्बन्ध है उन्हींके विषय में नहीं, किन्तु ऐसी बातों के भी विषय में जिनका सम्बन्ध सिर्फ अपने ही से है कोई आदमी या कोई कुटुम्ब अपने आपसे इस तरह के प्रश्न नहीं करता कि―मुझे पसन्द क्या है? या मेरे मत या स्वभाव के अनुकूल क्या है? या मुझमें जो चीज सबसे अधिक अच्छी या सबसे अधिक ऊंची है वह मुनासिब तौर पर काम में किस तरह लाई जा सकती है? उसकी उन्नति किस तरह हो सकती है? वह अच्छी दशा में किस तरह बनी रह सकती है? वह इस तरह के प्रश्न करता है कि―मेरी स्थिति के योग्य क्या है; मेरी पदवी को शोभा क्या देगा या जो लोग मेरी के हैं और जिनके पास उतनी ही सम्पत्ति है जितनी मेरे पास है