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स्वाधीनता।


है कि मेरी योग्यता बढ़ गई है; मैं अपने लिए अधिक मूल्यवान् हो गया हूं; मैं अपने निज के काम काज पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह कर सकता हूं। अतएव व्यक्ति-विशेषता के बढ़ जाने से―आदमी के अधिक मूल्यवान हो जाने से―दूसरों के हित करने की योग्यता भी उसमें बढ़ जाती है। उसके अस्तित्व में, उसके व्यवहारों में पहले से अधिक जान आ जाती है। आदमियों ही के समूह का नाम समाज है। व्यक्तियों ही से समाज बना है। इससे यदि व्यक्ति में―यदि हर आदमी में―अधिक जान आजायगी तो समाज में भी अधिक जान आ जायगी। व्यक्तियों के अधिक जानदार और तेजस्वी होते ही समाज भी अधिक जानदार और तेजस्वी हो जायगा। जिनमें मानवी स्वभाव की बहुत अधिकता है, अर्थात् जिनकी तबीयत या प्रकृति में जोर अधिक है―तेजी जियादह है―वे अपने से कमजोर आदमियों के हक छीन लेने या उन्हें सताने की अकसर कोशिश करते हैं। इसलिए उनका शासन जरूर करना चाहिए; उन्हें एक बंधी हुई हद के बाहर न जाने देना चाहिए। मतलब यह कि जहां तक हो सके, प्रतिबन्ध द्वारा उनकी शक्ति का नियमन कर देना चाहिए। बिना यह किये काम नहीं चल सकता। परन्तु इससे मनुष्य की उन्नति में कमी नहीं आ सकती। इस तरह के प्रतिबन्ध से आदमी के सुधार में बाधा नहीं उत्पन्न हो सकती। यदि एक आदमी की मानसिक उन्नति में कुछ कमी भी आ जायगी तो दूसरे की उन्नति में विशेषता होने से वह कमी पूरी हो जायगी। अर्थात् इस तरह के प्रतिबन्ध से समाज की कोई हानि न होगी। क्योंकि बलवान् आदमी अपनी वासनाओं की जो तृप्ति करता है वह निर्बल आदमियों की वासनाओं का नियंत्रण करके करता है। अर्थात् उसकी वासनायें जितनी अधिक तृप्त होंगी औरों की वासनायें उतनी ही अधिक तृप्त होने से रह जायंगी। परन्तु सामाजिक प्रतिवन्ध या नियंत्रण से बलवान् का भी फायदा ही होता है। क्योंकि उसकी स्वार्थपरायणता कम हो जाती है और परार्थ-परायणता बढ़ती है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है, व्यक्तियों ही के समूह से समाज बना है। अतएव हर आदमी के दो अंश होते हैं―एक व्यक्ति-अंश, दूसरा समाज-अंश। इससे जय किसी बलवान् आदमी की वासनाओं की बाढ़ रोकी जाती हैं तब उसके व्यक्ति-अंश की जितनी हानि होती है, उसके समाज-अंश का उतना ही लाभ होता है। दूसरों के हित के लिए―दूसरों को अन्याय से