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स्वाधीनता।


उसकी उन्नति होने ही से आदमी सब तरह की उन्नतियां कर सकता है। इन बातों का मैंने यहां तक विचार किया। यहीं पर इस विवेचना को समाप्त कर देने से काम चल जाता। क्योंकि इसकी अपेक्षा और अधिक क्या प्रशंसा हो सकती है कि, अमुक तरह का बर्ताव करने से आदमी यथाशक्य पूर्णता को प्राप्त कर सकता है―यथासम्भव सर्वोत्तम स्थिति को पहुंच सकता है? अथवा इससे अधिक और क्या निन्दा हो सकती है कि, अमुक तरह का बर्ताव करने से उस स्थिति-उस पूर्णता―तक पहुंचने में विघ्न आता है? तथापि इसमें कोई सन्देह नहीं कि, इस विषय में, जिन लोगों को कायल करने की जरूरत है वे इतनी ही विवेचना से कायल न होंगे। इतनी ही से उन लोगों का विश्वास इस सिद्धान्त पर न जमेगा। इस सिद्धान्त को उनके मनोनीत करने के लिए―उनके गले उतार देने के लिए―उनको इस बात के भी बतलाने की जरूरत है कि इस तरह पूर्णता को पहुंचे हुए आदमी अपनी अपेक्षा अपूर्ण आदमियों के काम भी आवेंगे। उनको इस बात की याद दिलाने की भी जरूरत है कि यदि दूसरों को बिना किसी प्रतिवन्ध के स्वाधीनता को काम में लाने की अनुमति दे दी जायगी तो, जो लोग स्वाधीनता की परवा नहीं करते और स्वाधीनता मिल जाने पर भी जो उससे लाभ नहीं उठाते, उनका भी हित ही होगा।

उनका पहला हित यह होगा कि उन अपूर्ण, अथवा अल्पज्ञ आदमियों से उन्हें कुछ शिक्षा मिलेगी―कुछ ज्ञान प्राप्त होगा। इस बात को सभी स्वीकार करेंगे कि आदमी के व्यवहार से सम्बन्ध रखनेवाली जितनी बातें हैं उनका एक अङ्ग―और ऐसा वैसा नहीं, महत्त्व का अङ्ग कल्पना―शक्ति है। कल्पना, अर्थात् नई नई बातों के आविष्कार का बड़ा महात्म्य है। नये नये सिद्धान्तों का पता लगानेवालों की, और जो सिद्धान्त पहले सच समझे गये थे उनको भ्रामक सिद्ध करनेवालों की ही हमेशा जरूरत नहीं रहती। नये नये व्यवहारों अर्थात् रीति-रवाजों के शुरू करनेवालों की, और आधिक उन्नत बर्ताव अधिक उन्नत बुद्धिमानी और अधिक उन्नत अभिरुचि का नमूना सब के सामने रखनेवालों की भी बहुत बड़ी जरूरत रहती है। जो आदमी यह नहीं समझता, अर्थात् जिलको इस बात पर विश्वास नहीं है, कि संसार में जितने आचार, विचार और व्यवहार हैं सब सम्पूर्णता को पहुँच गये हैं वह मेरे इस कथन का खण्डन नहीं कर सकेगा। यह जरूर सच है कि इस तरह