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स्वाधीनता।

याद रखनी चाहिए कि प्रतिभा अर्थात् अद्भुत बुद्धि या अद्भुत कल्पना-शक्ति की कमी का उनको जितना कम खयाल है उतनी ही अधिक उनको उसकी आवश्यकता है।

कल्पित या सच्ची मानसिक श्रेष्ठता को लोग चाहे जितना मान दें, अथवा उसे चाहे जितना आदरणीय समझें, सच बात तो यह है; कि दुनिया में आदमियों की प्रवृत्ति औसत दरजे की लियाकत रखनेवालों ही को प्रभुता देने की तरफ अधिक है। पुराने जमाने में जो बीच का समय था उसमें (और आज तक के बहुकाल-व्यापी परिवर्तन-शील समय में भी) हर आदमी थोड़ी बहुत शक्ति अवश्य थी—अर्थात् व्यक्ति-विशेष की महिमा को लोग थोड़ा बहुत जरूर मानते थे। और जिस व्यक्ति में बुद्धि की विशेषता देख पड़ती थी, या समाज में जिसका स्थान अधिक ऊंचा होता था, उसे लोग और भी अधिक महत्त्व देते थे। परन्तु समाज से व्यक्तिविशेषता आज कल बिलकुल ही चली गई है। राजकीय कामों में नाम लेने लायक सत्ता इस समय यदि किसी की है तो जन-समुदाय की है। और जबतक जनसमुदायकी समझ, भावना और प्रवृत्ति के अनुसार सत्ताधारी राज्यशासक काम करते हैं तब तक उनकी भी है। यह दशा सिर्फ सार्वजनिक कामों ही की नहीं है; खानगी बातों से सम्बन्ध रखनेवाले जितने नैतिक और सामाजिक व्यवहार हैं उनकी भी है जिन लोगों की राय सार्वजनिक या जन-साधारण की राय कहलाती है लोग सब एक ही तरह के नहीं होते। अर्थात् जन-साधारण में भी भेद होता है। अमेरिका में जितने गोरे चमड़े के आदमी हैं उन सब की गिनती जन-साधारण में है। इँग्लेण्ड में विशेष करके मध्यस्थिति के ही आदमी जन-साधारण में गिने जाते हैं। परन्तु वे लोग सब कहीं समुदाय, या जन समूह, के रूप में हैं। इस समुदाय से मेरा मतलब मध्यम-शक्ति के जनसमूह से है। यह आश्चर्य्य की बात है। इससे भी अधिक आश्चर्य्य की बात यह है कि यह जन-समुदाय, पहले की तरह, अब धर्म्माधिकारियों से, राज्याधिकारियों से प्रजा के प्रसिद्ध मुखिया लोगों से और अच्छी अच्छी पुस्तकों से अपने मत नहीं प्राप्त करता। यह समुदाय खुद विचार या विवेचना भी नहीं करता। उसके लिए विचार और विवेचना का काम और ही लोग करते हैं। पर वे भी बहुत करके उस समुदाय के आदमियों ही की तरह के आदमी होते हैं। उत्तेजना मिलने