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तीसरा अध्याय।


जोर दे रहा हूं उसका कारण यह है कि व्यवहार में लोग इस सिद्धान्त से बहुत कम काम लेते हैं। जब इसके अनुसार काम करने का मौका आता है तब वे इसकी तरफ ध्यान नहीं देते। अर्थात् इस सिद्धान्त की योग्यता और इसके अनुसार बर्ताव होने की आवश्यकता को तो वे मानते हैं; परन्तु मानते ही भर हैं; प्रत्यक्ष में उसके अनुसार वे बहुत कम काररवाई करते हैं। प्रतिभा के बल से यदि किसी ने कोई मनोहारिणी कविता लिखी या कोई अद्भुत तसबीर बनाई, तो लोग उसकी जरूर तारीफ करते हैं। परन्तु मन में प्रायः सभी यह समझते हैं कि उसके बिना भी उनका काम निकला सकता है। प्रतिभा के योग से विचार और व्यवहार में नयापन आजाता है। प्रतिभा के इस गुण को वे आश्चर्य की नजर से देखते जरूर हैं; पर साथ ही वे यह भी कहते हैं कि यदि प्रतिभा न हो तो भी उनका कोई काम रूका न रहेगा। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं । लोगों को ऐसा मालूम होना ही चाहिए। प्रतिभा वह चीज है जिसे प्रतिभाहीन आदमी उपयोग में नहीं ला सकते। यह बात उनकी समझ ही में ही नहीं आ सकती कि उससे उनका लाभ क्या होगा? और यह उनकी समझ में आवे कैसे? यदि साधारण बुद्धि के आदमियों के ध्यान में यह बात आजाय कि प्रतिभा से उनका क्या लाभ होगा तो उसे प्रतिभा ही न कहना चाहिए। यदि कदाचित् ऐसा होजाय तो वह अद्भुत कल्पना-शक्ति ही नहीं। प्रतिभा का सब से पहला काम यह होगा कि वह मामूली आदमियों की आँखें खोल देगी। जब उनकी आँखें एक वार अच्छी तरह खुल जायँगी तब कहीं उसे पाने की योग्यता उनमें आवेगी। उस समय वे खुद ही उसे पाने की चेष्टा करेंगे। तब तक उनको यह बात याद रखनी चाहिए कि जितनी बातें आज तक हुई हैं उनका प्रचार किसी न किसी आदमी ने पहले पहल जरूर किया है। यदि शुरु शुरू में कोई उनका प्रचार न करता तो वे कभी अस्तित्व में न आतीं। जितने सुख-साधन इस समय प्रचलित हैं, जितनी अच्छी अच्छी बाते इस समय देख पड़ती हैं, वे सब अद्भुत कल्पना-शक्ति का ही फल है। यदि प्रतिभा से काम न लिया जाता तो कदापि उनकी उत्पत्ति न होती। इससे सब लोगों को अहक्कांर छोड़ कर यह बात मान लेनी चाहिए कि अब भी प्रतिभा के लिए कुछ काम बाकी है, अर्थात् उसकी सहायता से अब भी बहुत सी नई नई बातें हो सकती हैं। उनको यह बात भी विश्वासपूर्वक

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