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स्वाधीनता ।

मानों के धर्म के विरुद्ध है। परन्तु यह बात साफ साफ समझ में नहीं आती कि सुअर खाना धर्म-विरुद्ध होने ही के कारण मुसलमानों को उससे इस तरह की और इतनी घृणा क्यों होनी चाहिए ? शराब पीना भी मुसलमानों के धर्म के विरुद्ध है। धर्म की दृष्टि से वह भी निपिन्द्र है। शराब पीना मुसलमान पाप जरूर समझते हैं, पर किसी को उसे पीते देख उन्हें घृणां नहीं होती। सुअर एक मैला जानवर है। उससे मुसलमानों को जो घृणा होती है वह एक विशेष प्रकार की है। वह स्वाभाविक सी हो गई है। वह उसके मैलेपन के कारण आप ही आप पैदा हो गई है। जब किसी चीज के मैलेपन की बात मन में अच्छी तरह जम जाती है तब उससे उन लोगों को भी घृणा होती है जिनको और बातों में सफाई का बहुत कम खयाल रहता है। हिन्दुओं में छुआछूत का जो इतना अधिक विचार है वह इस बात को याद रखने लायक उदाहरण है । अच्छा, अब, मान लीजिए कि किसी देश में मुसलमान अधिक हैं और उन्होंने बहुमत के जोर पर यह नियम कर दिया कि कोई आदमी सुअर का मांस न खाय । मुसलमानी देशों के लिए यह कोई नई बात नहीं । तो समाज के मत की प्रबलता का ऐसा नैतिक उपयोग क्या उचित होगा? और, यदि, न उचित होगा तो क्यों न होगा ? सुअर खाना सचमुच ही घृणित काम है। फिर, मुसलमानों को इस बात पर विश्वास है कि ईश्वर की आज्ञा उसे न खाने की है। उससे खुद ईश्वर को भी घृणा है। फिर, इस तरह के निषेध का यह भी अर्थ नहीं हो सकता कि लोगों के धर्म-विपयक विश्वासों पर आघात हुआ~-उनमें दस्तंदाजी हुई-उनके लिए लोग सताये गये । अतएव इस तरह का निषेध करनेवालों को निंदा या निर्भर्त्सना के रूप में सजा भी नहीं दी जा सकती। जब पहले पहल इस निषेध का प्रारम्भ हुआ होगा तब शायद धर्म के ही कारण हुआ होगा । पर इस निषेध के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि इसके कारण लोगों के धर्म में व्यर्थ दस्तंदाजी हुई, या लोग व्यथ सताये गये; क्योंकि यह बात किसी के धर्म में नहीं लिखी कि सुअर का मांस खाना कोई धाम्मिक काम है। अतएव इस प्रकार के निषेध की निंदा करने या उसकी आवश्यकता बतलाने का सब से प्रबल आधार सिर्फ यह है कि समाज को लोगों की निज की बातों और रुचि या अरुचि में हाथ डालने का बिलकुल अधिकार नहीं।