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चौथा अध्याय

नियमों और समाज के नियमों में बड़ा अन्तर है। दोनों के बीच में अन्तर- रुपिणी एक इतनी चौढीं खाई है कि मद्यपाननिवारक समाज उसका उल्लं- धन ही नहीं कर सकता है। आप और भी कुछ कहते हैं:-" विचार, राय और अन्तःकरण से सम्बन्ध रखनेवाली जितनी बातें हैं सब कानून की हद के बाहर की हैं । अर्थात् उनका नियमन कानून के द्वारा न होना चाहिए । और सामाजिक बर्ताव, सामाजिक स्वभाव या आदत, और सामाजिक नाते- दारी से सम्बन्ध रखनेवाली जितनी बातें हैं वे कानून की हद के भीतर हैं। अतएव उनके विषय में कानून बनाना या न बनाना गवर्नमेण्ट की मरजी पर मुनहसिर है । ये बातें ऐसी नहीं हैं जिनको करने या न करने का निश्चय हर आदमी की मरजी पर छोड़ दिया जाय"। पर मंत्रीजी की इस उक्ति में व्यक्ति-विषयक बर्ताव और आदतों का जिक्र नहीं है । आपने दो तरह की बातों पर तो अपनी राय जाहिर की, पर तीसरी तरह की बातों को आप मिलकर ही भूल गये। तीसरे प्रकार की बातें मंत्रीजी की दोनों प्रकार की बातों से बिलकुल ही जुदा हैं। ये उनमें शामिल नहीं हो सकती। ये बातें सामाजिक नहीं, किन्तु व्यक्ति-विपयक है क्योंकि व्यक्ति ही से उनका सम्बन्ध है । और, शराब पीने की आदत इसी तीसरे प्रकार की बातों के अन्तर्गत हैं। इसमें जरा भी सन्देह नहीं है । यह सच है कि शराब बेचने की गिनती व्यापार में हैं और व्यापार करना एक सामाजिक व्यवसाय है । पर जिस प्रतिबन्ध के प्रसंग में मैं लिख रहा हूं वह प्रतिबन्ध बेचने के विषय का नहीं हैं पीने के विपय का है। बेचने की मनाई समाज कर सकता है; पर पीने की नहीं। समाज या गवर्नमेण्ट यदि चाहे तो शराब बेचने के विपय में बेचनेवाले की स्वाधीनता छीन ले सकती है। मैं उसके खिलाफ कुछ नहीं कहता । पर शराब मोल लेने और उसे पीनेवाले की स्वाधीनता को समाज या गवर्नमेण्ट नहीं छीन ले सकता। और, यहां पर शराब वेचना वन्द कर देना मानो उसका पीना बन्द कर देना है । इसीलिए इस तरह का प्रतिबन्ध अनुचित है। यदि गवर्नमेण्ट इस मतलब से शराब की विक्री बन्द कर दे कि उसे कोई न बेचे तो वह साफ साफ लोगों से यही क्यों न कह दे कि तुम लोग शराब मत पियो । क्योंकि दोनों का मतलब एक ही है। इस बात का उत्तर मंत्री जी इस तरह देते हैं-"मैं नागरिक हूं-अर्थात् नगर (समाज ) में रहनेवाले भादमियों में से मैं भी एक हूं। इसलिए मैं भी