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पांचवां अध्याय

कामों के लिए किसीको सजा ही देता है। क्योंकि इस तरह के कामों से जो हानि होती है वह सिर्फ करनेवाले ही को सहन करनी पड़ती है। उसका बोझ खुद उसीके सिर रहता है। अब प्रश्न यह है कि इस तरह के काम करनेवालों को जैसे उनके करने की स्वतंत्रता है वैसे ही उनको करने के लिए उपदेश या उत्तेजना देने की दूसरों को भी स्वतंत्रता है या नहीं ? कुछ काम ऐसे हैं जिनसे सिर्फ करनेवालों ही की हानि की सम्भावना है। उन्हें यदि वे चाहें तो कर सकते हैं। पर यदि दुसरा आदमी किसीसे कहे कि-" तुम इस काम को करो," या उसे करने के लिए किसी तरह की वह उत्तेजना दे, तो क्या उसे ऐसा करने की भी स्वतं- त्रता है । इस प्रश्न का उत्तर देना सहज नहीं है, क्योंकि यह बात कठिनता से खाली नहीं है । कोई काम करने के लिए दूसरे को उपदेश देना, या उससे प्रार्थना करना, एक ऐसी बात नहीं है जिसकी गिनती निज की बातों में हो सके। वास्तव में ऐसी बातें आत्म-विषयक बर्ताव की परिभाषा के भीतर नहीं आ सकती। किसीको उपदेश देना अथवा प्रलोभन या लालच दिखलाना सामाजिक काम है । अतएव लोगों का खयाल है कि दूसरों से सम्बध रखनेवाले और कामों की तरह वह काम भी सामाजिक बन्धन का पात्र है। अर्थात् इसका भी बन्धन समाज के हाथ में है। परन्तु यह खयाल गलत है। यह भ्रम मात्र है। थोड़ा सा विचार करने से यह भ्रम दूर हो जायगा। कुछ देर सोचने से यह बात समझ से भा जायगी कि उपदेश और उत्तेजन यद्यपि व्यक्ति-स्वातंत्र्य की परिभाषा के ठीक ठीक भीतर नहीं आते, तथापि जिन प्रमाणों के आधार पर व्यक्ति-स्वातंत्र्य की स्थापना है वही प्रमाण उपदेश और उत्तेजन की बातों के भीआधार हैं। जिन प्रमाणों के आधार पर लोगों को इस बात की स्वतंत्रता है कि जिन कामों का और लोगों से सम्बन्ध नहीं हैं उनको, उनके हानि लाभ की जिम्मेदारी अपने अपर रखकर, जिस तरह वे चाहें कर सकते हैं, उन्हीं प्रमाणों के आधार पर . इनको इस बात की भी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए कि दूसरों से सलाह करके .. या उनकी राय लेकर वे इस बात का निश्चय करें कि क्या करना उनके लिभच्छा होगा और क्या न अच्छा होगा । जिस आदमी को जिस काम के करने की आज्ञा है उसे उस काम के सम्बन्ध में औरों से सलाह लेने की भी बाजा होनी चाहिए। यदि कोई काम करना मुनासिब है, तो उस काम के विपर में पूरपार करना और सलाह लेना भी मुनासिब है। जब सलाह देने-

स्न०-१३