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स्वाधीनता ।


वाला अपनी सलाह से खुद फायदा उठाता है; या जब वह उन बातों को जिन्हें समाज और सरकार बुरा समझती है, करने की सलाह देते फिरना, पेट के लिए, अपना पेशा कर लेता है, तब यह विषय जरूर सन्देहास्पद जाता है। तव यह खयाल पैदा होता है कि ऐसे सलाहकार-ऐसे उप शकको सलाह या उपदेश देने की स्वतंत्रता होनी चाहिए या ना ऐसी हालत में एक पेचीदा वात पैदा हो जाती है। क्योंकि जिन बातों समाज बुरा समझता है उनका पक्ष लेने, और अपना पेट पालने के लिए: करने, की दूसरों को सलाह देनेवाले लोगों का एक वर्ग ही जुदा बन के है। अतएव इस बात के निर्णय की जरूरत होती है कि समाज से इस प्रतिकूलता करनेवाले वर्ग को बनने देना चाहिए या नहीं। एक उदाह लीजिए । जुआ खेलना और व्यभिचार करना सहन किया जा सकता है। क्या कुटनापन करने या जुआ खेलनेवालों को किराये पर देने के लिए मः रखनेवालों का पेशा भी सहन किया जा सकता है । जिन सिद्धान्तों के आ पर इस बात का निर्णय किया जाता है कि लोगों को किन बातों के करने स्वतंत्रता होनी चाहिए उनकी हद है। यह हद जिस जगह एक दूसरी मिलती है उस जगह जो प्रश्न पैदा होते हैं उन्हीं में से एक प्रश्न यह है । अतएव यह वात सहसा ध्यान में नहीं आती कि यह प्रश्न-यह वा किस सिद्धान्त के भीतर है। अर्थात् इसका सम्बन्ध स्वतंत्रता देनेव सिद्धान्त से है या स्वतंत्रता न देनेवाले से। दोनों सिद्धान्तों के अनुः दलीलें पेश की जा सकती हैं । स्वतंत्रता देने के पक्ष में यह कहा जा सक है कि जिस काम को मामूली तौर पर करने की मनाई नहीं है उसे य कोई पेशे के तौर पर करने लगा, और उसकी मदद से वह अपना पेट पार या फायदा उठाने लगा, तो क्या इतने ही से वह अपराधी हो गया। या आप उसको इस काम के करने की पूरी पूरी स्वतंत्रता ही दीजिये या उसः इसे करने से बिलकुल रोक ही दीजिये। स्वतंत्रता-सम्बन्धी जिन सिद्धान की सिद्धि के लिए इतना वादविवाद हुआ वे यदि ठीक है तो, समाज रूप में, समाज को यह अधिकार नहीं कि वह व्यक्तिविषयक किसी वात कानून के विरुद्ध कह सके । इसलिए वह समझाने बुझाने या सलाह देन' आगे नहीं जा सकता। इस विषय में यदि समाज कुछ कर सकता है। सिर्फ इतना ही कर सकता है। अतएव हर आदमी को अधिकार है कि