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स्वाधीनता।


मैं पहले ही कह चुका हूं कि सर्व-सम्मत और व्यापक सिद्धान्तों के न होने से जिन बातों की स्वतंत्रता न देना चाहिए उनकी स्वतंत्रता तो अकसर दी जाती है और जिनकी देना चाहिए उनकी नहीं दी जाती। अर्वाचीन योरप में एक बात ऐसी है जिसके विषय में लोगों के स्वतंत्रता-सम्बन्धी मनोविकार बहुत ही प्रबल है; परन्तु उस बात की स्वतंत्रता देना, मेरी समझ में, अनुचित है। जिन बातों से औरों का सम्बन्ध नहीं उनको यथेच्छ करने की हर आदमी को स्वतंत्रता है; परन्तु यदि कोई आदमी दूसरों के काम-काज को, अपना ही समझने के बहाने, उसे करना चाहे तो उसका प्रतिबन्ध जरूर करना चाहिए। इस विषय में उसे मनमानी बात करने की स्वतन्त्रता देना मुनासिब नहीं। निजसे ही विशेष सम्बन्ध रखनेवाले काम-काज के विषय में हर आदमी को स्वतंत्रता देना जैसे गवर्नमेंट का कर्तव्य है, वैसे ही उसका यह भी कर्तव्य है कि जिसको उसने दूसरों पर हुकूमत करने का अधिकार दिया है उस पर वह अच्छी तरह निगाह रक्खे। अर्थात् वह इस बात को देखती रहे कि उसके अधिकारी अपने अधिकार का दुरुपयोग तो नहीं करते। परन्तु कुटुम्ब के आदमियों का परस्पर एक दूसरे से जो सम्बन्ध होता है उसके विषय में गवर्नमेंट अपने इस कर्तव्य का बहुत अनादर करती है। संसार में जितनी महत्त्व की बातें हैं वे सब मिल कर भी इस कुटुम्ब-सम्बन्धी बात की बराबरी नहीं कर सकतीं। इसका प्रभाव हर आदमी की सुख-सामग्री पर पड़ता है। पत्नी पर पति प्रायः बादशाह की तरह हुकूमत करता है। पर इस विषय में, यहां पर, विस्तार-पूर्वक लिखने की जरूरत नहीं। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि स्त्रियों को वे ही हक मिलने चाहिए जो पुरुषों को मिले हैं, और कानून जैसे औरों की रक्षा करता है वैसे ही उसे स्त्रियों की भी रक्षा करना चाहिए। बस इससे अधिक और कुछ न चाहिए। इतने ही से स्त्रियों के सम्बन्ध की बुराइयां रफा हो जायँगी। इस विषय में अधिक न लिखने का दूसरा कारण यह है कि स्त्रियों पर चिरकाल से होनेवाले अन्याय के जो पृष्ठपोषक हैं वे इस बात ही को नहीं कुबूल करते कि स्त्रियों को भी स्वतंत्रता देना चाहिए। वे खुले मैदान कहते हैं कि स्त्रियों पर पुरुषों की सत्ता होने ही में समाज का कल्याण है। अतएव विवाद किस बात पर किया जाय? सच पूछिए तो सन्तान के सम्बन्ध में माँ-बाप को जो स्वतंत्रता होनी चाहिए उसकी ठीक