पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


मेरे प्यारे राम! तू ही सुलझाता है मेरी हर एक पेचीदा उलझन को। किस उलझन में पड़ा हुआ था! सोचता था, तेरे प्रेम का भेद मैं मजहबी बस्ती के भीतर खोल सकूँगा या वहाँ की जाकर ख़ाक छाननी होगी, जहाँ एक वीराना हो, पर अधखुली आँखें कुछ देखने को छट-पटाया करती हों?

धर्म-मजहब की वन्द वस्ती में तेरा अनोखा भेद कहाँ खुलता! वहाँ क़ैद रहकर मैं अपनी उलझन को जीवनभर भी न सुलझा सकता। रखा क्या है उस लेन-देन की मतलबी बस्ती में। धर्म या मजहब तो तेरे विरह की तड़प को, शराब की तरह बस थोड़ी देर के लिए, भुला देगा। क्या कहूँ, उस पुनीत कारागार की कहानी विचित्र है। आस्तिकता के नाम पर असल में तेरे अस्तित्व से इन्कार करनेवाले धर्मात्मा ही उस नगरी में धूनी रमाये बैठे हैं। ख़ुदी के मद में चूर वे कूपमंडूक पण्डित और वे कठमुल्ले राहेख़ुदा क्या ख़ाक दिखायँगे। अरे, वह तेरा 'गोकुल गाँव का पेंड़ा ही न्यारा' है।

बुरा न मानें वे अनुभवी आचार्य, वे रसीदा पैग़म्बर, जिन्होंने अपने-अपने युग में अपने उच्च विचारों की सुदृढ़ नींव रखी थी, अशान्त संसार को शान्ति देने के लिए जिन्होंने अपने पवित्र हाथ ऊँचे किये थे। कौन जाने, उनके वे युग कैसे थे और कैसी थीं तब की परिस्थितियाँ। इसमें सन्देह