पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२७५

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ईश्वर-प्रेरित है, क्योंकि वे धर्मवान् जो हैं, दींदार जो हैं! जो उनके साथ न चलेगा, उसे वे ठोकरें लगायँगे ही। वे बड़े हैं, उनकी धर्मप्रेरित ठोकरें भी बड़ी हैं। वे वेद-शास्त्रों का नाम लेते हैं, कुरान और इंजील की दुहाई देते हैं। मंदिरों में माथा टेकते हैं, मसजिदों में सिजदा करते हैं, गिरजों में प्रार्थना पढ़ते हैं। अपने आप पर उनका विश्वास न हो, न सही, पर धर्म को विज्ञापन-कला पर तो उनका अखण्ड विश्वास है; अतः वे सम्मान्य हैं, वन्दनीय हैं!

पर, तु भी तो एक अनोखा खिलाड़ी है। यह खेल खूब खेला! धर्मात्माओं की मतलब-भरी आँखों में धूल डालकर तू उस मजहवी बस्ती से आख़िर निकल ही भागा। वे समझे हुए हैं, कि तु अब भी वहीं रम रहा है! जिन घरों में ख़ुदीने डेरा डाल दिया, वहाँ ख़ुदा कैसे ठहर सकता था? अब आज उस धर्म-नगरी में क्या है? आत्मा कहती है―

सब कुछ है, एक तू ही नहीं है। मंदिर भी खाली पड़े हैं, मसजिदें भी खाली पड़ी हैं। न जाने, किसकी वहाँ पूजा होती है, और किस की सिजदा की जाती है। बेचारे महमुद को आज भी 'वुत-शिकन' कहकर लोग गालियाँ देते हैं। पर उन तमाम मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ देनेवाले, यानी तेरी हस्ती को वहाँँ से झाडू मारकर निकाल देनेवाले धर्मप्राण महापुरुषों की ओर कोई उँगली भी नहीं उठाता! अजब हैरानी है। यह बुत-परस्ती हुई या बुत-शिकनी?

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