पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२८२

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नाम दे बैठे हैं, उसे यदि किसीने खुल्लमखुल्ला हिम्मत के साथ ठुकरा दिया, तो क्या यह ईश्वर-विद्रोह हो गया? पर बलिहारी है समय की सूझ पर! अरे मेरे प्राणों के प्राण, तेरा बहिष्कार तो संभव ही नहीं है। तृही तो प्यार का सार है, और वह प्यार ज़िन्दगी से बाहर कैसे किया जा सकता है? पर, हाँ, उन तंग और अँधेरे दिलों के बाहर तो तु सदाही रहा करता है, जहाँ तेरे पवित्र नाम पर दंभ-पूर्ण स्वार्थ का सौदा तय किया जाता है, जहाँ पवित्र धर्म की दुहाई दी जाती है, पर ईमान बेचा जाता है। ऐसे मैले-कुचैले दिलों में तेरे स्वच्छ प्रेम के लिए जगह ही कहाँ है?

मतलव से भरी उस धर्म की निराली नगरी में, प्यारे, तेरे परम प्रेम का भेद न खुलेगा, न खुलेगा। उस आवादी में तो मेरा जी ऊब गया था। वहाँ से तो यह वीरान मैदान बहुत अच्छा है। यहाँ न वेद की बातें सुन पड़ती हैं, न क़ुरान या बाइबिल की। यहां न मठ या मंदिर है, न मसजिद या चर्च। न संघ है, न मिशन। न कोई मत है, न मजहब। खुला आकाश है, खुली हवा है। मीलों तक प्रेमियों के दिल का रक़वा फैला हुआ है। तेरी दया के बारहमासी झरने भर रहे हैं। यहीं तू हँसता-खेलता मिलेगा, यहीं तेरे प्रेम का राज़ खुलेगा। प्यारे, बस, तो अव ले चल अपने इस भूले-भटके वन्दे को अपनी शरण में। तेरे हाथ जाड़ता हूँ, स्वामी, तेरे पैरों पर गिरता हूँ, नाथ, उस दुनिया से मुझे

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