पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२९४

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च्युत समझ लें या नास्तिक की ही वह सस्ती-सी उपाधि प्रदान कर डालें ! उन के दिये हुए इस महान सम्मान का मैं स्वागत ही करूँगा, मुझे तनिक भी बुरा न लगेगा । मैं धर्म. वान् हूँ या धर्म-च्युत, मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक, मैं मूर्ति - पूजक हूँ या मूर्ति-निन्दक, इस सब का समझनेवाला तो नाथ, एक तू है, यह भेड़ियाधसान मजहब की पब्लिक नहीं । इन लोगों के दिये फैसले को मैं फैसला ही नहीं मानता । फैसला देनेवाले ये सब होते कौन हैं ? पहले खुद अपना ही तो फैसला कर लें । हाँ, इन व्यवस्थापकों से चाहे जैसी व्यवस्था ली जा सकती है। इनकी धार्मिक अदालत के कानून का मैं तो कायल नहीं । मेरी अदालत है तो तेरा द्वार और मेरा मुंसिफ़ है तो तू । पुरस्कार देगा तो तू, और दण्ड देगा तो तू । मेरे मत का महरम तो, स्वामी, तू है। इन ठग व्यवसाइयों के विरुद्ध मैं क्यों बगावत करने पर उतारू हो गया, इसका भेद तो, वस, तू जानता है और केवल तू ही जानता है।

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