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पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३०

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पहला अध्याय।


स्वभाव ही सा पड़ गया था उनकी सत्ता को रोकना शायद उन लोगों ने बुरा न समक्षा हो। उन्होंने अब यह चाहा कि अधिकारियों को प्रजा ही नियत किया करे; और, वे अधिकारी, प्रजा की ही इच्छा और प्रजा के ही हानिलाभ का खयाल करके, सब काम करें। अधिकारियों की इच्छा और उनका लाभ प्रजा की ही इच्छा और प्रजा का ही लाभ हो। ऐसा होने से राज-सत्ता को रोकने की कोई जरूरत न होगी। क्योंकि, प्रजा को, तब, अपने ही ऊपर आप जुल्म करने का डर न रहेगा । जितने अधिकारी हों वे अपने देश, अर्थात् प्रजा, के सामने अपने को उत्तरदाता समझें; प्रजा के द्वारा, जब वह चाहे तब, वे निकाल दिये जा सकें; और प्रजा उनको इतना अधिकार दे सके जितने के दिये जाने की वह जरूरत समझे। अपनी रक्षा के लिए प्रजा ने इतना ही काफी समझा। अधिकारियों की सत्ता और शक्ति को लोगों ने प्रजा की ही सत्ता और शक्ति समझी। हाँ, सुभीते के लिये, कुछ आदमियों को सारी प्रजा की सत्ता देकर, उन्होंने ऐसे नियम बनाने चाहे जिसमें उस सत्ता से उनका काम अच्छी तरह निकल सके। ऐसे विचार, अथवा भाव, योरप में, गत पीढ़ी में, सभी के थे; और इंगलैंड के स्वाधीनचित्तवालों को छोड़ कर औरों में अब भी यह बात अकसर पाई जाती है। पर राजकीय बातों में स्वार्थ लेनेवाले जो लोग योरप में यह समझते हैं कि राजसत्ता की हद होनी चाहिए, वे बहुत थोड़े हैं। उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो किसी किसी विशेष प्रकार की राज्य-पद्धति का होना बिलकुल ही पसन्द नहीं करते। पर, ये दोनों तरह के आदमी बहुत ही कम हैं। इस तरह की विचारपरम्परा यदि न बदलती, तो इंगलैंड वालों के भी विचार, शायद, इस समय तक, वैसे ही हो जाते।

परन्तु जो बात आदमियों के लिए कही जा सकती है वही राज्यशासन और दर्शन-शारण के लिए भी कही जा सकती है। अर्थात् नाकामयावी होने पर जो दोए कभी कभी नहीं दिखाई देते वे कामयावी होने पर दिखाई देने लगते हैं। जद प्रजासत्तात्मक राज्य की कल्पना लोगों के मन में पहले पहल पैदा हुई; अथवा, जब लोगों ने किताबों में यह पढ़ा कि पहले, किसी समय, चिली किली देश में प्रजासत्तात्मक राज्य था, तब, उनको यह बात स्वयंसिद्ध सिद्धान्त के समान मालूम हुई, कि प्रजासत्तात्मक राज्य में अपनी ही सत्ता की शक्ति को रोकने की कोई जरूरत नहीं रहती। हां, फ्रांस में, जिस समय