का गला घोंटकर, धर्म की ओट में, राजनीतिक जाल
फैलाया करे । और, कट्टर सनातनी वह, जो 'न गच्छेज्जैन-
मन्दिरम्' आदि दिव्य धर्म-सूत्रों का पूर्णतः समर्थक हो।
कट्टरों की दुनिया में आर्य होना सुगम है, किन्तु आर्यसमाजी
होना महान् कठिन है। ईमानदार होना तो एक मामूली-सी
बात है, पर मजहबी मुसल्मान होना जरा टेढ़ी खीर है।
विनीत सेवक या दयालु प्रेमी होना तो बाएँ हाथ का खेल है,
पर कट्टर क्रिश्चियन होना हर किसी के बूते का काम नहीं ।
मतलब यह कि, दीन की बौखलायी हुई दुनिया में प्यार
करनेवाले 'मनुष्य' का मूल्य नहीं, वहाँ तो काटनेवाले कट्टर
'जानवर' की इज्जत है । वहाँ सरल सहृदयों की नहीं,
बल्कि कुटिल कट्टरों की घनी आबादी है।
अब शान्ति और आनन्द ऐसी अवस्था में कहाँ मिल सकता है ? धर्मान्ध जगत् में लोगों को रगड़े-झगड़े से ही फुर्सत नहीं है । जहाँ वात-बात में एक दूसरे का गला घोंट दे, मसजिद और बाजे के सवाल पर सिर-फुडौवल होने लगे, पीपल की एक डाल पर ही खूनखच्चर हो जाय या एक धार्मिक दीवार के बँटवारे पर ही म्यान ले तलवारें खिंच जायें, वहाँ सुख और शान्ति का सपना देखना मूर्यो के राज्य में विचरण करना नहीं तो क्या है ? धर्म के पवित्र क्षेत्र में पक्षपात का विपाक्त वृक्ष जड़ जमा चुका है। तास्लुब का दूर होना बहुत मुश्किल है । नाथ ! तूही इन