पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२९९

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सर्वश्रेष्ठ है, म्लेच्छ जाति का भी कहीं कोई धर्म होता है ? माना कि, विलियम सत्यवान् और सदाचारी है, पर वह लेच्छ पुनर्जन्म-वाद कहाँ मानता है ? करीमखाँ कृष्ण-प्रेमी अवश्य है, पर 'शुद्धि' उसकी कहाँ हुई है ? रामकिशोर प्रभु यीशु के गिरि-शिखर पर के उपदेशों का परमभक्त तो ज़रूर है, पर दुःख इतना ही है,कि उसका बाकायदे 'बपतिस्मा' नहीं हुआ !देवदत्त सन्ध्या-वन्दन और हवन तो विधिपूर्वक करता है, पर बुराई उस महाशय में यही है, कि वह हज़रत मुहम्मद और ईसा की बुराई नहीं करता!नमाज और रोज़ की पाबंदी रखते हुए भी महसूदखां किशन की गीता की इज्ज़त किया करता है, कैसे उसको सच्चा मुसलमान कहा जाय ? गोपा. लाचारी कैसा वैष्णव है ! शिव-लिङ्ग को वह शठ प्रणाम किया करता है ! छिः छिः! इतना भारी विद्वान वह भवभूति शास्त्री आज जैन-मन्दिर में नास्तिक पार्श्वनाथ का दर्शन कर आया ! सारांश, सच्चाई, सहिष्णुता और ईश्वर-भक्ति का कट्टर धार्मिकों के संसार में कोई मूल्य ही नहीं । वहाँ तो तास्सुब से भरी कट्टरता ही धर्म की सच्ची कसौटी है। उदाहरणार्थ, कट्टर आर्यसमाजी वह, जो पैग़म्बर मुहम्मद साहब को 'रंगीला रसूल' के नाम से याद किया करे । मसलन् , कट्टर मुसल्मान वह, जो 'किशन, तेरी गीता जलानी पड़ेगी' की सुरीली सदा गली-गली लगाता फिरे । इसी तरह कट्टर ईसाई वह, जो सेवा-भाव और विश्व-प्रेम

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